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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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वस्तुका भावस्वभाव ही दीखे ऐसा कभी प्रतीत नहीं होता है। अन्यथा स्वरूप आदि द्रव्य, क्षेत्र, काल, मावोंके चतुष्टयकरके जैसे वस्तुका अस्तित्व ( सद्भाव ) माना जाता है, वैसा ही पररूप आदि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके चतुष्टयकरके भी वस्तुके सद्भावकी प्रतीति होनेका प्रसंग आवेगा । अर्थात्-" सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादि चतुष्टयात् " वस्तु अपने स्वरूप नित्य गुण, पर्याय, अविभागप्रतिच्छेद, नैमित्तिकस्वभाव, पर्यायशक्तियां, अशुद्ध द्रव्यके कालान्तरस्थायीगुण आदि स्वकीय शरीरके द्रव्य, क्षेत्र, काल, मावसे सत्स्वरूप है । यहां पंचाध्यायीके अनुसार अपनी गांठके देश, देशांश, गुण, गुणांशोंको वस्तुका द्रव्य, क्षेत्र, भाव, काल, पकडना चाहिये । अर्थात् अखंडित अनेक देश आत्मा, आकाश, धर्म आदि या अखण्डित एकदेश पुद्गल परमाणु आदि वस्तुओंका यथायोग्य लम्बा चौडा पिण्डदेश है । विष्कम्भ क्रमसे उस देशके प्रदेश अनुसार खण्डकल्पना करना देशांश है । द्रव्यके पूरे देशको व्याप रही एक एक नित्यशक्ति गुण हैं। तथा गुणके त्रिकालमें होनेवाले परिणाम गुणांश हैं । इस अपने चतुष्टयसे वस्तु सत् है। किन्तु परवस्तुक चतुष्टयकरके प्रकृत वस्तु अभावस्वरूप प्रतीत हो रही है । अभेद पदसे अनुजीवी गुण, स्वभाव, अपेक्षिक धर्म और सप्तभङ्गिओंके विषयकल्पित-धर्म सब पकडने चाहिये ।
न चानाद्यनंतसर्वात्मकं च वस्तु प्रतिभाति यतस्तथाभ्युपगमः श्रेयान् ।
वस्तु यदि सर्वथा भावरूप ही होती तो उसमें प्रागभाव, ध्वंसामाव, इतरेतराभाव, अत्यन्तामाव कथमपि नहीं पाये जाते और ऐसा होनेपर वस्तु अनादि, अनन्त, सर्वात्मक, बन बैठती । अर्थात् प्रागभावको माने विना सम्पूर्ण घट, पट, आदि पदार्थ अनादि काळसे चले आ रहे हो जाते। क्योंकि प्रागभाव ही तो कार्य उत्पत्तिके प्रथम समयतक उन घट आदिके सद्भावको रोके हुये था। जब प्रागभाव ही नहीं माना जा रहा है तो द्रव्योंकी सम्पूर्ण कार्यपये अनादिकालकी बन बैठेंगी और वंसके नहीं माननेपर सम्पूर्ण पर्यायें अनंतकालतक ठहरनेवाली हो जायंगी । क्योंकि अब वस्तुका सर्वथा सद्भाव मानलेनेसे पदार्थोकी मृत्यु तो नहीं मानी जायगी। ऐसी दशामें घट, पट, आम, अमरूद आदि पदार्थ अनन्तकालतक ठहरे रहेंगे । इनका नाश होना तो माना ही नहीं गया है तथा एक द्रव्यकी विवक्षित पर्यायोंका अन्य पर्यायोंमें यदि अन्योन्याभाव नहीं माना जायगा तो चाहे जो पर्याय चाहे जिस पर्यायस्वरूप हो जायगी । बालक अवस्था ही वृद्ध अवस्था स्वरूप हो जायगी । रत्न भी डेल हो जायगा, अग्नि उसी समय जल हो जानी चाहिये, जब कि परस्पर परिहारको करनेवाला अन्योन्याभाव नहीं माना जाता है तो अन्योन्यमें भेद कैसे भी नहीं मिल सकेगा । इसी प्रकार एक द्रव्य या उसकी पर्यायोंका दूसरी द्रव्य अथवा उसकी पर्यायोंमें त्रिकाल रहनेवाला अत्यन्ताभाव नहीं माना जावेगा, तो सर्व आत्मक दोष होगा। यानी आत्मा पुद्गल बन बैठेगा, आकाश द्रव्य कालद्रव्य हो जायगा । ज्ञानगुण गंधस्वरूप हो जायगा, आकाशमें ज्ञानका और रूपका समवाय सम्बन्ध हो जाओ। पुद्गल द्रव्यमें चैतन्य और. सुख हो