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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
जाओ । भला अत्यन्ताभावके विना उक्त प्रकारके सांकर्यको कौन रोक सकता है ? जब कि जैन सिद्धान्त अनुसार द्रव्य, गुणपर्याय, स्वरूप वस्तुयें अपने अपने स्वरूपमें स्थित हैं और अनादि अनन्त सर्व
आत्मक होती हुयीं वस्तुयें नहीं प्रतिभास रही हैं । जिससे कि तिस प्रकार वस्तुका सद्भाव ही स्वीकार करना श्रेष्ठ समझा जावे । वस्तुतः भाव, अभाव, दोनों स्वभावोंके तादात्म्यकरके पदार्थ गुथे हुये हैं । "कार्यद्रव्यमनादि स्यात् मांगवभावस्य निहवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनंततां व्रजेत" "सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे । अन्यत्र समवायेन व्यपदिश्येत सर्वथा " इस प्रकार आप्तमीमांसामें श्री पूज्य गुरु समन्तभद्र स्वामीने प्रतिपादन किया है।
नाप्यभाव एव वस्तुनोनुभूयते पररूपादिचतुष्टयेनेव स्वरूपादिचतुष्टयेनाप्यभावप्रतिपत्तिप्रसंगात् । न च सर्वथाप्यसत्पतिभाति यतस्तदभ्युपगमोपि कस्यचित्पतितिष्ठेत् । प्ररूपितप्रायं च भावाभावस्वभाववस्तुप्रतिभासनमिति कृतं प्रपंचेन ।
भाव एकान्तका निरास कर अब अभाव एकान्तका निराकरण करते हैं कि सर्वथा अभाव ही बस्तुका अनुभूत नहीं हो रहा है । अन्यथा पररूप आदिके चतुष्टयकरके जैसे अभाव जाना जा रहा है, उसीके समान स्वरूप आदिके चतुष्टयकरके भी वस्तु के अभावकी प्रतिपत्ति होनेका प्रसंग होगा, जो कि इष्ट नहीं है। सभी प्रकारोंसे असत् हो रही वस्तु तो नहीं प्रतिभासती है, जिससे कि उस अभाव एकांतका स्वीकार करना भी किसी शून्यवादी या तत्वोपप्लववादीका प्रतिष्ठित हो सके। सभी प्रामाणिक विद्वानोंके यहां भाव, अभावस्वरूप वस्तुका प्रतिभास हो रहा है । इस बातको हम बहुत बार प्रायः कह चुके हैं। इस कारण यहां अधिक विस्तार करके कथन करनेसे क्या लाभ है ।। सत् असत् आत्मक वस्तुको सिद्ध करनेमें हम कृतकृत्य हो चुके हैं । अब कुछ साध्य शेष नहीं हैं।
सर्वथोत्पादे विनाशे च पुनः पुनः स्फटिकादौ दर्शनस्पर्शनयोः सांतरयोः प्रसंजनस्य दुर्निवारत्वात् ।
प्रकरण अनुसार वैशेषिकोंके प्रति हम कहते हैं कि यदि स्फटिक, काच आदिका पुनः पुनः सर्वथा उत्पाद और शीघ्र शीघ्र विनाश माना जायगा तो स्फटिक आदिकमें हो रहे चाक्षुषप्रत्यक्ष
आर स्पार्शन प्रत्यक्षोंको अन्तरालसहित हो जानेका प्रसंग आ जाना दुर्निवार है। अर्थात्स्फटकके उत्पाद होनेपर उसका दर्शन और स्पर्शन तथा स्फटिकके शीघ्र नाश होनेपर उसका अदर्शन और अस्पर्शन होता रहेगा। ऐसी दशामें निरन्तर धनी देरतक देखा, छुआ, जा रहा वही स्फटिक बीचमें अन्तराल पडते हुये देखा छुआ जा सकेगा। इस देखने, छूनेमें न देखने न छूनेके अन्तराल पडते रहनका निवारण वैशेषिक नहीं कर सकते हैं ।
तदर्थोनुमीयेतति चेन्न, तेषां काचादेर्न भ्रांतत्वमर्थोपरक्तस्य विज्ञानस्यानुद्गतिर्नः (१)।