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________________ तखार्थ श्लोकवार्तिक या अभावकी हत्या कर देनेपर वस्तुमें एक ही समयमें भाव और अभाव दोनों नहीं पाये जा सकेंगे। किन्तु वस्तु सदा ही भाव, अभाव, दोनोंके साथ तदात्मक हो रही प्रतीत की जा रही है। शनैः शनैः भोजन करनेपर मध्यमें अस्पर्शन और अरसनके व्यवधान पड रहे जाने जा रहे हैं। छींट या फटे वस्त्रको देखकर अदर्शनका व्यवधान पड रहा अनुभूत हो रहा है । गोल पंक्तियोंमें लिखे हुये अक्षरोंके ऊपर छेदोंकी गोल पंक्तिवाली चालनीके रख देनेपर वे अक्षर नहीं बांचे जाते हैं। किन्तु उन अक्षरोंके ऊपर चालनीको शीघ्र शीघ्र छुआदेने या डुला देनेसे वे अक्षर व्यक्त, अव्यक्त, बांच लिये जाते हैं। अक्षरोंके बांचनेमें व्यक्तपना यों आया कि चालनीके ठोस भागसे उन अक्षरोंके जो अंग, अंगावयव छिये गये थे वे चालनीके डुलानेपर बीच बीचमें दीख जाते हैं । और बांचनेमें अव्यक्तपना यों रहा कि चालनीके सर्वथा उठा लेनेपर जितना व्यक्त दृष्टिगोचर होता था उतना घुमाई हुयी चालनीसे व्यवहित हो रहे अक्षरों का स्पष्ट दर्शन नहीं हो पाता है। यहां शुक्लपत्रके ऊपर लिखे हुये काले अक्षरोंकी घुमानेपर शीघ्र शीघ्र आमा पडनेसे पत्रकी शुक्लतामें कुछ कालापन दीखता है। इसी प्रकार काले अक्षरोंके ऊपर पत्रकी शुक्लताकी प्रभा पड चुकी है। चक्रमें अनेक लकीरोंको कई रंगोंसे लम्बा रंग कर पुनः उसको शीघ्र घुमानेपर आभाओंका सांकर्य देखिये । यह चलनाके घुमानेपर पत्रके व्यक्त, अव्यक्त अक्षरोंका दीखना, भाव अभाव दोनोंका कार्य है। थालीके धर देनेपर अक्षर सर्वथा नहीं बंचते हैं। और चलनी केवल घेरा धर देनेसे अक्षर स्पष्ट निरावरण देख लिये जाते हैं । बात यह है कि भाव और अभाव दोनों समान बलसे कार्य कर रहे हैं । अथवा किसी लम्बे पत्रमें सुईके समान अन्तराल देते हुये सुईके बराबर लकीरें काट लेनेपर उस लम्बी छिद्रपंक्ति वाली चलनीके समान पत्रको पुस्तकपर बिछा देनेसे अक्षर नहीं पढे जाते हैं । किन्तु उस छिदी लकीरवाले पत्रको पुस्तक पंक्तियोंपर शीघ्रतासे यदि डुलाया जाय तो अक्षर पढ लिये जाते हैं। यहां भी भाव अभाव दोनों समान शक्तिसे दर्शन, अदर्शन, पश्चात् दर्शन अदर्शन, पुनः दर्शन अदर्शन इन कार्योको कर रहे हैं। उनका व्यवधान भी प्रतीत हो रहा है। इसी प्रकार स्पार्शन प्रत्यक्षमें भी लगा लेना। दो हथेलियोंके बीचमें धरकर कडी गोलीको घुमानेपर स्पर्शन और अस्पर्शन जाने जा रहे हैं। भले ही छनेमें ही उपयुक्त हो रहे पुरुषका लक्ष्य स्पर्शनमें जाय, किन्तु साथ साथ मध्यमें हुआ अस्पर्शन भी छूट नहीं सकता है । चौकीपर धरे हुये भूषणको देखते समय भी सिंह, सर्प आदिका अभाव हमको निर्भय कर रहा है । अन्यथा सिंह, सर्प, विष, आदिके सद्भावको प्रतीति हो जानेपर भूषण, भोजन, आदिको छोडकर दृष्टा, रसयिता, स्पृष्टा पुरुष न जाने कहा भगता फिरेगा । अतः माव और अभाव दोनों समान बलवाले होते हुये वस्तुमें अपना ज्ञान और अर्थक्रियाओंको करा रहे हैं। न हि वस्तुनो भाव एव कदाचित्मतीयते स्वरूपादिचतुष्टयेनेव पररूपादिचतुष्टयेनापि भावप्रतीतिप्रसक्तः।
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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