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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
यदि वैशैषिक यों कहें कि पहिले समयके उत्पाद और उत्तरवर्ती तीसरे समयके उत्पादमें आगे पीछे के उत्पाद अतिशीघ्र हो रहे हैं । अतः इन दो उत्पादोंकरके उस स्फटिकके मध्यवर्ती विनाशका तिरोभाव होगया है । इस कारण वहां उपयोग लगा रहे जीवको अदर्शन अथवा अस्पर्शन नहीं होंगे । आगे पीछे होनेवाले उत्पाद मध्यके विनाशको छिपा देते हैं। इस प्रकार वैशेषिकोंके कहनेपर तो हम आमंत्रण करते हैं कि इस प्रकार तो द्वितीय समयका पहिला विनाश और चतुर्थ समयका विनाश इन शीघ्र होनेवाले दो विनाशोकरके ही उस स्फटिकके तृतीय समयवर्ती मध्यके उत्पादका विरोध हो जाने के कारण उस स्फटिकके दर्शन और स्पर्शन नहीं होने चाहिये । अर्थात् जैसे इधर उधरके उत्पादोंके बीचमें विनाश पडा हुआ है, उसी प्रकार इधर उधरके दो विनाशोंके बीचमें एक उत्पाद भी पड़ा हुआ है। गोल बारहद्वारी गृहमें दो थम्भोंके बीचमें जैसे द्वाररूप पोल है, तथैव दो द्वाररूप पोलोंके बीचमें एक थम्मा भी है। ऐसी दशामें दर्शन, अदर्शन और स्पर्शन, अस्पर्शन तुल्यबलवाले पडते हैं । रत्तीमर तो क्या बालाग्र बराबर भी अन्तर नहीं है।
तदुत्पादयोः स्वमध्यगतविनाशतिरोधाने सामर्थ्य भावस्वभावत्वेन बलीयस्त्वात तद्विनाशयोः स्वमध्यगतोत्पादतिरोधानेऽभावस्वभावत्वेन दुर्बलत्वादिति चेन्न, भावाभावस्वभावयोः समानबलत्वात् । तयोरन्यतरबलीयस्त्वे युगपद्भावाभावात्मकवस्तुप्रतीति. विरोधात् । । इसपर वैशेषिक यदि यों कहें कि स्फटिकके इधर उधरके दो उत्पादोंकी अपने मध्यमें पडे हुये विनाशको तिरोभाव करनेमें शक्ति है। उत्पत्ति भावस्वरूप पदार्थ है। और विनाश अभावस्वरूप पदार्थ है । अभावको भाव छिपा देता है । चौकीपर घोडे, हाथी, पर्वत, समुद्र, आदि पदार्थोके असंख्य अभाव रखे हुये हैं । उन सबको चौकपिर धरे हुये पत्र, रुपया, अथवा सुन्दर भूषण, फल, पुष्प आदिक भावपदार्थ तिरोभूत कर देते हैं । पत्र, भूषण, आदिके हो रहे चाक्षुषप्रत्यक्ष इतर पदार्थोके अदर्शनोंको छिपा देते हैं। थालीमें परोसे हुये सुन्दर भावभक्ष्य पदार्थीका स्पार्शनप्रत्यक्ष या रासनपत्यक्ष ये थालीमें अभावको प्राप्त हो रहे अनन्त पदार्थोके वर्तरहे अस्पर्शन, अरसनको तिरोभूत कर देते हैं । कारण कि अभावकी अपेक्षा भावपक्ष भावका स्वभाव होनेसे विशेष बलवान् होता है । प्रकृतमें - उत्पाद बलवान् है । और उस स्फटिकके विवोंमें पहिले पीछे पडे हुये दो विनाशोंको अपने मध्यमें प्राप्त हो रहे उत्पादके तिरोधान करनेमें अमावस्वभावपना हो जानेके कारण दुर्बलपना है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना । क्योंकि वस्तु के अनुजीवी, प्रतिजीवी गुणस्वरूप हो रहे भाव, अभाव दोनोंको समानबलसहितपना है। दोनोंकी सामर्थ्य बराबर एकसी है। उन भाव अभाव दोनोंमेंसे किसी एकको यदि अधिक बलवान माना जायगा तो युगपत्भाव अभावस्वरूप वस्तुकी हो रही प्रतीतिका विरोध हो जायगा, यानी एक बलवानसे दूसरे निर्बलभाव
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