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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
कोई तटस्थ विद्वान् शंका करता है कि इस प्रकार ज्ञानको भी अपने निज स्वरूपसे स्पष्टपना कैसे प्राप्त होगा ! बताओ । यदि उस ज्ञानके स्वस्वरूपको जाननेवाले अन्य ज्ञानसे प्रकृत ज्ञानमें स्पष्टता लाओगे, यह तो ठीक नहीं पडेगा । क्योंकि अनवस्था दोषका प्रसंग हो जायगा। अर्थात दूसरे ज्ञानका स्पष्टपना उसको जाननेवाले तीसरे ज्ञानसे ऋण लिया जावेगा। और तीसरे झानका स्पष्टपना उसको जाननेवाले चौथे ज्ञानसे उधार लिया जायगा । जैसे कि अर्थका स्पष्टपना ज्ञानसे मांगा गया था। भीखमेंसे भीख और उस भीखमेंसे भीख लेना तो मनस्वी ज्ञानीको उचित नहीं है। यदि ज्ञानको स्पष्टपना स्वतः ही प्राप्त हो जाता है, यों कहोगे तब तो सभी व्यंजनावग्रह, स्मरण, अनघ्यवसाय, आदि ज्ञानोंको स्पष्टतया प्राप्त होजाना आ पडेगा, जो कि इष्ट नहीं है। इस प्रकार जमाकर तटस्थकी शंका हो जानेपर यहां कोई वावदूक नैयायिक उत्तर देनेके लिए बीच में ही अनधिकार बोल उठता है कि ज्ञानकी स्पष्टता तो इन्द्रियोंसे आ जाती है । अर्थात् जो ज्ञान इन्द्रियोंसे जन्य है, वे स्पष्ट हैं । ग्रंथकार कहते हैं कि यह उन नैयायिकोंका कहना युक्तिरहित है । क्योंकि यदि इन्द्रियोंसे ही ज्ञानमें स्पष्टपना आने लगे तो अधिक दूरवर्ती वृक्ष डेरा आदिके ज्ञानको तथा दिनमें उलूक आदि तामसपक्षियोंके समुदायको होनेवाले ज्ञानको भी स्पष्टपनेका प्रसंग होगा। अंधकारमें अच्छा देखनेवाले तामस पक्षियोंका दिनके अवसरपर हुआ पदार्थोका आविशद ज्ञान इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ तो है ही । अतः नैयायिक या वैशेषिकोंके ऊपर यह व्यभिचार दोष लगा।
तदुत्पादकमक्षमेव न भवति दूरतमदिवसकरप्रतापाभ्यामुपहतत्वात् मरीचिकासु तोयाकारज्ञानोत्पादकाक्षवदिति चेत् तर्हि ताभ्यामक्षस्य स्वरूपमुपहन्यते शक्तिर्वा । न तावदाद्यः पक्षः तत्स्वरूपस्याविकलस्यानुभवात् । द्वितीयपक्षे तु योग्यतासिद्धिस्तव्यतिरेकेणाक्षशक्तेरव्यवस्थितेः क्षयोपशमविशेषलक्षणायाः योग्यताया एव भावेंद्रियाख्यायाः स्वीकरणाईत्वात् ।
इसपर यदि नैयायिक यों कहें कि उन दूरवर्ती वृक्षके ज्ञान या दिनमें तामस पक्षियों के ज्ञानोंको उत्पन्न करानेवाली तो इन्द्रियां ही नहीं रही हैं । कारण कि अधिक दूर देशसे और सूर्यके प्रतापसे वे इन्द्रियां नष्ट हो चुकी हैं । जब कारण ही मर गया तो कार्य भी नहीं हो पाता है। जैसे कि चमकते हुये वालू रेत या फूले हुये कांस आदि मृगतृष्णाओंमें जलका विकल्प करनेवाले ज्ञानकी उत्पादक इन्द्रियां चकाचौंध, अतिव्याकुलता, आदिसे बिगड जाती हैं । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नैयायिकों द्वारा असदुत्तर देनेपर तो हम पूछते हैं कि उन अतिशय दूरदेश अथवा सूर्यप्रताप या चाकचक्यकरके क्या इन्द्रियोंका स्वरूप ही पूरा नष्ट कर दिया गया है ? अथवा क्या इन्द्रियोंकी अभ्यन्तर शक्ति नष्ट कर दी गयी है ! बताओ। तिनमें पहिला पक्ष ग्रहण करना तो ठीक नहीं है । क्योंकि उन इन्द्रियोंके अविकल पूर्णखरूपका ठीक ठीक अनुभव हो रहा है।