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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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और दर्शन निराकार होता है। यहां आकारका अर्थ पदार्थोका स्वपरसम्वेदन करानेकी अपेक्षा विकल्पनाऐं करना है । यदि प्रतिबिम्ब लेना अर्थ किया जायगा तो स्मरणशानमें भूतपदार्थोकी या सर्वज्ञज्ञानमें भूत, भविष्य, पदार्थोकी अथवा व्याप्तिज्ञानमें त्रिलोकत्रिकालवर्ती वह्नि, धूम, आदि पदार्थोकी इप्ति नहीं हो सकेगी । जो जीव मर चुका है, या गर्भमें आनेवाला है, वह वर्तमान में किन्हीं को ऋण नहीं बांटता फिरता है । अतः साकारका अर्थ सविकल्पक ही ग्रहण करना । प्रकरणमें चमचमाते हुये ज्ञानके धर्म ज्ञेयमें ले आये जाते हैं । प्रकाशमान दीपककी तीव्र, मन्द, ज्योतियोंका प्रभाव प्रकाश्य अर्थपर पडता है। ____ यथैव हि दूरादस्पष्ट स्वभावत्वमर्थस्य सन्निकृष्टस्पष्टताप्रतिभासेन बाध्यते तथा समिहितार्थस्य स्पष्टत्वमपि दरादस्पष्टताप्रतिभासेन निराक्रियत इति नार्थः स्वयं कस्यचिस्पष्टोऽस्पष्टो वा स्वविषयज्ञानस्पष्टत्वास्पष्टत्वाभ्यामेव तस्य तथा व्यवस्थापनात् ।
___ यदि अपर विद्वान् यों कहें कि अस्पष्टपना तो बाधित हो जाता है। तो हम भी कह देंगे कि स्पष्टपना भी कचित् बाध डाला जाता है । देखिये, जिस ही प्रकार दूरसे जाने गये अर्थका अस्पष्ट स्वभावपना वहां वहां जाते जाते ज्ञाताको अर्थके अतिनिकटवर्ती हो जानेपर स्पष्टपनके प्रतिभास करके बाधित हो जाता है, तिस ही प्रकार सनिकटवर्ती अर्थका ज्ञानद्वारा आया हुआ स्पष्टपना भी हटकर दूरसे देखनेपर अर्थके अस्पष्टपन प्रतिभास करके निराकृत हो जाता है। इस ढंगसे सिद्ध हो जाता है कि किसी भी जीवके द्वारा जाना गया अर्थ स्वयं अपनी गांठसे स्पष्ट अथवा अस्पष्ट नहीं है। किंतु अपनेको विषय करनेवाले ज्ञानके स्पष्टपन और अस्पष्टपनकरके ही तिस प्रकार उस अर्थकी स्पष्टता और अस्पष्टता व्यवस्थित हो रही है। जैसे जगत्का कोई भी पदार्थ अपनी गांठसे इष्ट, अनिष्ट बन गया नहीं है । धन, पुत्र, दूध, मेवा, मिष्टान, गीत, नृत्य, कलत्र, भूषण, पुष्पमाला, आदि मनोज्ञ पदार्थ भी रोगदशा वृद्धअवस्था या वैराग्य हो जानेपर अनिष्ट हो जाते हैं । कूडा, कीचड, मल, मूत्र, आदि अनिष्ट भी अर्थ समयपर किसानोंको सम्पत्तिके समान अभीष्ट हो जाते हैं । तत्कालीन प्रयोजनोंके साधक, असाधक हो जानेसे इष्ट, अनिष्टपना पदार्थोंमें कल्पित कर लिया गया है । कोई भी दृष्टान्त पूर्णरूपसे दार्टान्तमें लागू नहीं होता है। अन्यथा वह दृष्टान्त स्वयं दाष्टीत बन बैठेगा ? इष्ट अनिष्टपना तो किसी भी वस्तुमें यथार्थरूपसे नहीं है, किन्तु स्पष्ट, अस्पष्टपना तो अपने कारण क्षयोपशमके वश हुआ ज्ञानमें गांठका वस्तुतः विद्यमान है।
नन्वेवं ज्ञानस्य कुतः स्पष्टता ? स्वज्ञानत्वादिति चेन, अनवस्थानुषंगात् । स्वत एवेति चेत् सर्वज्ञानानां स्पष्टत्वापत्तिरित्यत्र कश्चिदाचष्टे । अक्षात्स्पष्टता ज्ञानस्येति तदयुक्तं, दविष्ठपादपादिज्ञानस्य दिवा तामसखगकुलविज्ञानस्य च स्पष्टत्वप्रसंगात् ।