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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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अर्थात्-इन्द्रियोंका शरीर ठीक वैसाका वैसा ही बना हुआ है। कोई त्रुटि नहीं हो पाती है। चिकित्सा किये विना ही तभी उन्हीं इन्द्रियों करके अन्य भी तो कई समीचीनज्ञान हो रहे हैं। दूसरा पक्ष लेनेपर तो यानी प्रकृष्ट दूर देश या सूर्यकिरण-प्रताप, से चक्षुकी शक्ति नष्ट हुयी मानोगे तब तो योग्यताकी सिद्धि हो जाती है । उस योग्यताके अतिरिक्तपनेकरके इन्द्रिय शक्तिको व्यवस्था नहीं हो सकती है । क्योंकि भावेंद्रिय नामसे प्रसिद्ध हो रही ज्ञानावरण कर्मके विशेष क्षयोपशमस्वरूप योग्यता ही को इन्द्रियशक्तिपना स्वीकार करने योग्य है । " लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् " ज्ञानावरणकर्मके सर्वघातिस्पर्धकोंका उदयाभावस्वरूप क्षय यानी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप सामग्री नहीं मिल सकनेके कारण विपाक दिये विना ही खिर जाना और भविष्यकालमें उदय आनेवाले ज्ञानावरणके सर्वघातिस्पर्धकोंका उदीरणा, उदय आवलीमें नहीं पडते हुये वहांका वहां ही सदवस्थारूप उपशम दशामें पड़ा रहनास्वरूप उपशम तथा ज्ञानको एक देशसे घातनेवाले देशघातिस्पर्धकोंका उदय होना, ऐसी क्षयोपशमरूप दशा होनेपर आत्माकी विशुद्धि. जो हो जाती है, वह भावेन्द्रियनामकी योग्यता है । वही इन्द्रियोंकी शक्ति मानने योग्य है । दूरदेश या उलूक आदिको घामका प्रकरण उपस्थित होनेपर अथवा अतिनिकटवर्ती अंजन, पलक आदिको देखनेका पुरुषार्थ करनेपर स्पष्टवानावरणके क्षयोपशमरूप योग्यताके नहीं मिलनेसे स्पष्टज्ञान नहीं हो पाया है। अतः ज्ञानको स्पष्टपना और अस्पष्टपना स्वकीय योग्यताके अनुरूप हुआ इष्ट करना चाहिये ।
ज्ञानस्य स्पष्टताऽऽलोकनिमित्तेत्यपि दूषितम् ।
एतेन स्थापितात्वीहा क्षायिकं च वशंकरी ॥८॥
वैशेषिक कहते हैं कि ज्ञानका स्पष्टपना आलोकके निमित्तसे हो रहा है। अर्थात्तेजोद्रव्यकी प्रभारूप आलोकका जिन द्रव्य, गुण, जाति, आदि पदार्थोके साथ संयोग या संयुक्त समवाय अथवा संयुक्तसमवेतसमवाय सम्बन्ध हो जायगा, उन पदार्थोके ज्ञानमें उस आलोकके निमित्तसे स्पष्टता आजावेगी । अन्य अनुमान आदि ज्ञानोंमें स्पष्टपना नहीं है। आलोकको उन बानोंका निमित्तपना नहीं बन सकनेके कारण उनमें अस्पष्टपना व्यवस्थित है। इस प्रकार वैशेषिकोंका कहना भी इस उक्त कथनकरके ही दूषित कर दिया गया समझ लेना । दूरसे वृक्षको देखनपर या दिनमें उल्लूके लिये उद्भूत आलोक प्राप्त है, तो फिर क्यों नहीं स्पष्टज्ञान होता है ! बताओ । अतः व्यभिचारदोष हुआ। वस्तुतः विचारा जाय तो आलोक बानका कारण नहीं है । भूत, भविष्य, पदार्थोके साथ आलोकका सनिधान नहीं होते हुये भी आत्मा, जाति, पृथक्त्व, परिणाम, रस,गंध,कर्म, आदिका कचित् स्पष्टज्ञान हो जाता है । उद्भूतरूप या आलोकसंयोगको द्रव्यके चाक्षुषप्रत्यक्षमें समवायसम्बन्धसे और द्रव्यसमवेत रूपादिके प्रत्यक्षमें स्वाश्रयसमवाय सम्बन्धसे अथवा रूपत्व आदिका प्रत्यक्ष करनेमें स्वाश्रयसमवेत समवायसम्बन्धसे खेंचखांचकर परम्परासम्बन्ध द्वारा वहां लाना अन्याय