________________
५०८
तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके
-
स्वीकार करते हैं, जैसे कि रूप रस तो है, किंतु पुद्गलद्रव्य कोई धर्मी नहीं है, ज्ञान, सुख तो हैं आत्मा नहीं है, उन वादियोंके निराकरणार्थ " अर्थस्य " यह सूत्र कहा गया है।
न कश्चिद्धर्मो विद्यते बह्वादिभ्योन्योऽनन्यो वानेकदोषानुषंगात्तदभावे न तेपि धर्माणां धर्मिपरतंत्रलक्षणत्वात्स्वतंत्राणामसंभवात् । ततः केषामवग्रहादयः क्रियाविशेषा इत्याक्षिपंतं प्रतीदमुच्यते । अर्थस्याबाधितप्रतीतिसिद्धस्य धर्मिणो बहादीनां सेतराणां तत्परतंत्रतया प्रतीयमानानां धर्माणामवग्रहादयः परिच्छित्तिविशेषास्तदेकं मतिज्ञानमिति सूत्रत्रयेणेकं वाक्यं चतुर्थसूत्रापेक्षेण वा प्रतिपत्तव्यं ।
बौद्ध कटाक्ष करता है, बहु, बहुविध आदि धर्मोसे सर्वथा भिन्न अथवा अभिन्न कोई धर्मी पदार्थ विद्यमान नहीं है । क्योंकि अनेक दोषोंके आनेका प्रसंग होगा। धर्मीसे धर्मका सर्वथा भेद माननेपर " इस धर्मीके ये धर्म हैं " ऐसी नियत व्यपदेश नहीं हो सकेगा। जलका धर्म उष्णता
और अग्निका धर्म शीतपना बन बैठेगा । कोन रोक सकेगा तथा धर्मीका धर्मोसे अभेद माननेपर धर्मोके समान धर्मी भी अनेक हो जायंगे । अथवा एक धींके समान अनेक धर्म भी एक बन बैठेंगे। ऐसी दशामें भी धर्मी स्वतंत्र सिद्ध नहीं हो सकता है। तथा उस धर्मीका अभाव हो जानेपर उसके आश्रित रहनेवाले वे धर्म भी नहीं सिद्ध होते हैं। क्योंकि धर्मीके पराधीन होकर रहना धर्मोका लक्षण है । सभी धर्म धर्मीक पराधीन ठहरते हैं । स्वतंत्र रहनेवाले धर्मोका असम्भव है, तिस कारण अब आप जैन बतलाइये कि वे अवग्रह, ईहा, आदिक ज्ञप्तिक्रिया विशेष हो रहे भला किन विषयोंके हो सकेंगे? इस प्रकार आक्षेप करते हुये पराधीन बौद्ध विद्वान्के प्रति यह सूत्र श्रीउमास्वामी आचार्य करके कहा जाता है । इधर उधरके पदोंका उपस्कार कर इस सूत्रका अर्थ यों है कि बाधारहित प्रतीतियोंसे सिद्ध हो रहे धर्मीस्वरूप अर्थके बहु आदिक धर्म है जो कि अल्प आदि इतरोंसे सहित हो रहे वे बहु आदिक धर्म उस धर्मीके परतंत्रपनेकरके प्रतीत किये जा रहे हैं । उन बहु आदिक बारह धर्मोकी अवग्रह आदि विशेष परिच्छित्तियां हो जाती हैं । तिस कारण वह सब एक मतिज्ञान है । इस प्रकार तीन सूत्रोंके एकावयवीरूपसे एक वाक्य बनाकर एक मतिज्ञानका विधान किया गया समझना चाहिये । अर्थात्--अवग्रहावायधारणाः १ बहुबहुविवक्षिप्रानिसृतानुक्तध्रुवाणां सेतराणां २ अर्थस्य ३ इन तीनों सूत्रोंका एकीभाव कर धर्मी अर्थके बहु आदिक धर्मोका अवग्रहज्ञान होता है । ईहा आदिकज्ञान भी होते हैं । अथवा चौथा सूत्र " तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं " मिलाकर यों शाबोध करना कि अर्थके बहु आदिक धर्मोंका इन्द्रिय अनिन्द्रियोंकरके अवग्रहजान होता है। ईहा आदि ज्ञान भी होते हैं अथवा चौथे सूत्र " मतिः स्मृतिः संज्ञाचिन्ताभिनिबोध इत्यनन्तरम् " की अपेक्षा रखते हुए उक्त तीन सूत्रोंद्वारा एक वाक्य बनाने पर यों अर्थ कर लेना कि अर्थके धर्म बहु आदिकोंके अवग्रह आदिक ज्ञान होते हुए स्मृति, प्रत्य