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तस्वार्थचिन्तामणिः
उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यस्वरूप पदार्थोंमें क्षिप्र, अक्षिप्र, अवग्रह, सब हो जाते हैं । प्राप्यकारी चार इन्द्रियों द्वारा अनिसृत, अनुक्तका अवग्रह युक्तियोंसे साध दिया है। अनेक पदार्थोके सूक्ष्मरूपसे नैमित्तिक परिणमन कुछ दूरतक फैल जाते हैं । चक्षु और मन अप्राप्य अर्थको विषय करते हैं । कर्ण इन्द्रिय छ्ये हुये शब्दको सुनती है, तथा स्पर्शन, रसना, प्राण, इन्द्रियां चुपटकर बंध गये हुये अर्थोको जानती हैं । नित्य अनित्य स्वरूप पदार्थोंमें ध्रुव, अध्रुवसे अवग्रह आदिक ज्ञान हो जाते हैं । सर्वत्र " अनेकान्तो विजयतेतराम् ” का दुन्दुभिनिनाद बज रहा है। वस्तु अपने नियत अनेक स्वभावोंमें तदात्मक होकर किलोलें कर रही है । मद्रमास्ता ।
बहादिसेतरविशेषविवर्तमानधात्मधर्मविषयेषु सवित्समाप्त । स्तावादशस्वखिलमदमिवात्रमास्सु कौटस्थ्य नाश्वरनिषेषिमतिप्रमाणं ॥१॥
बहु, बहुविध आदिक धर्मोके आधारभूत धर्मीको समझानेके लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिमसूत्रका प्रतिपादन करते हैं।
अर्थस्य ॥ १७॥ वे अवग्रह आदिक ज्ञानोंके विषय हो रहे बहु आदिक धर्म अर्थके हैं। अथवा बहु आदिक विशेषणोंसे सहित हो रहे अर्थ ( वस्तु ) के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान हो जाते हैं । स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, आदिक ज्ञान भी अर्थके ही होते हैं।
किमर्थमिदं सूज्यते सामर्थ्यसिद्धत्वादिति चेदत्रोच्यते ।
यह सूत्र किस प्रयोजनके लिये बनाया जा रहा है। क्योंकि बहु आदिक धर्मोके कथन कर देनेकी सामर्थ्यसे ही धर्मवाला अर्थ तो स्वतः प्रतीत सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार किसी शंकाकारका चोद्य उठाने पर तो इसके उत्तरमें यहां श्रीविद्यानंद आचार्य द्वारा यों कहा जाता है।
ननु बहादयो धर्माः सेतराः कस्य धर्मिणः । तेऽवग्रहादयो येषामित्यर्थस्येति सूत्रितम् ॥ १॥
शंका हो सकती है कि अल्प, अल्पविध, आदि इतरोंसे सहित हो रहे बहु, बहुविध आदिक धर्म किस धर्मीके हैं ! जिन बहु आदिकोंके कि वे अवग्रह आदिक चार ज्ञान हो सकें। इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर " अर्थस्य " ऐसा यह सूत्र आचार्यप्रवर श्री उमास्वामी महाराजद्वारा कहा गया है । भावार्थ-जो कोई धर्मीको न मानकर अकेले धर्मोको ही ज्ञानके विषय हुये