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तस्वार्थ श्लोक वार्तिके
अनित्यपनारूप दो स्वभावोंमेंसे किसी एक को भी यदि कल्पित माना जायगा तो उसके साथ अविनाभाव रखनेवाले दूसरे नित्यपन या अनित्यपन स्वभावको भी कल्पितपनेका प्रसंग हो जायगा । एक शरीर के धड या शिर को मृत अथवा जीवित मानलेनेपर शेष बचे हुये भागको भी मृत या जीवित मानना अनिवार्य पड जाता है। यदि नैरात्म्यवादी बौद्ध उन दोनों स्वभावोंका कल्पितपना इष्ट करलेंगे तब तो वस्तुका कोई भी रूप अकल्पित होता हुआ सिद्धिका अनुसरण नहीं कर सकता है, जिससे कि किसी भी उस वस्तुमें यह निःस्वभाववादी बौद्ध अपनी व्यवस्था कर सके । अर्थात् — किसी भी पदार्थको यदि मुख्य अकल्पित या अपने स्वभावोंमें व्यवस्थित नहीं माना जायगा तो सम्पूर्ण भी जगत् कल्पित हो जायगा । ऐसी दशामें बौद्ध अपनी स्वयंकी सिद्धि भी नहीं कर सकेंगे । तिस कारण उन दोनों ध्रुव, अध्रुव स्वरूपोंको बडी सुलभतासे प्रत्येक वस्तुमें निर्दोष स्वीकार करलेना चाहिये । इस प्रकार बहु आदिक बारह भेदोंके अवग्रह, ईद्दा, अवाय, और धारणाज्ञान हो जाते हैं। ऐसा शीघ्र निर्णीत करलो ।
इस सूत्र का सारांश |
इस सूत्र में आचार्य महाराजने प्रथम ही अवग्रह आदि क्रियाओंके कर्मोंका निरूपण करनेके लिये सूत्रका अवतार करना सार्थक बताया है । पुनः अवग्रह आदिक प्रत्येक ज्ञानका विषयभूत बहु आदिक से सम्बन्ध करना कहकर बहु और बहुविध या क्षिप्र और अध्रुवका भेद दिखाया है । निसृत और उक्त भी न्यारे हैं । प्रकृष्ट क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेके कारण बहु आदि छह का कण्ठोक्त निरूपण कर अन्य मन्द क्षयोपशमसे ही हो जानेवाले अल्प आदिका इतर पदसे ग्रहण किया है । आगे बहुशद्वकी पूज्यताको अच्छे ढंगसे साधा है। एक ज्ञानद्वारा बहुतसे अर्थ जाने जा सकते हैं । क्षयोपशम या क्षयके अधीन होकर ज्ञान प्रवर्तता है । ज्ञानका अर्थके साथ कोई घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं है । बहुतों में रहनेवाला बहुत धर्म भी व्यक्ति अपेक्षा अनेक हैं। यहां अच्छा विचार चला है। प्रत्येक अर्थ में एक एक ज्ञानका उपप्लव करना ठीक नहीं है। चित्रज्ञान, नगरज्ञान, प्रसादज्ञान ये सत्र अनेकोंमें एक ज्ञान हो रहे हैं। कथंचित एक, अनेकस्वरूप पदार्थको चित्र कहा जा सकता है । गुणमें अनेक स्वभाव ठहरते हैं। हां, गुणमें पुनः दुसरे गुण नहीं निवास करते हैं । प्रतिनियत अनेक स्वभाव सर्वत्र व्याप रहे हैं। प्रतीत सिद्ध पदार्थ में कोई विरोध दोष नहीं आता है । मानव शरीर में रक्त, अस्थि, मल, मूत्र आदि अशुद्ध पदार्थ भरे हुये हैं । फिर भी आत्माके सदाचारकी अपेक्षा पवित्रभाव व्यवस्थित हैं । सम्पूर्ण पदार्थोंके अनेक स्वभाववाले सिद्ध हो जानेपर भी जैनोंके यहां किसी विशेषपदार्थ में चित्रपनेका व्यवहार भले प्रकार साध दिया है । सर्वज्ञज्ञान या सूर्यप्रकाशके समान ज्ञान भी अनेक अर्थोको विषय कर सकता है । बहु आदिकोंमें अवग्रह आदिके समान स्मरण, प्रत्यभिज्ञानं, आदि ज्ञान भी हो जाते हैं। क्योंकि तदनुसार प्रवृत्तियां होती देखी जातीं हैं ।
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