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- तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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मोटा कंपना नहीं होनेके कारण अथवा पिघले हुये घी या तेलके समान व्यक्त बहना नहीं होनेके कारण सुमेरुपर्वतको अकम्प या दृढ कह दिया जाता है। हाथीका कान या बिजली भी अपने अवयवोंमें स्थिर होकर वर्त रही हैं । अथवा कुछ कालतक तो वे चंचल माने गये पदार्थ भी स्थिर रहते हैं । पदार्थको आत्मलाभके लिये कुछ समय तो चाहिये । शरीरकी हड्डीमें स्थिर कर्मके उदय और रक्तमें अस्थिर नामकर्मका विपाक माना गया है। किन्तु हड्डीमें भी अस्थिर कर्मका और रक्तमें भी स्थिरकर्मका विपाक प्रभाव डालरहा समझ लेना चाहिये । सूक्ष्मरूपसे हड्डी भी चंचल होती रहती है । लोहू भी कुछ देरतक एकस्थानपर ठहर जाता है । कभी कभी चोट लगनेपर या वातव्याधि हो जानेपर हड्डी चंचल हो जाती है । विशेष रोगमें रक्त भी कई स्थानोंपर जम जाता है । पहिले कहा चुका है कि बहुत वेगसे दौडनेवाली डांकगाडी भी लोह पटरीके प्रदेशोंपर ठहरती हुयी जा रही है । अन्यथा उस डांक गाडीसे भी आधिक शीघ्र दौडने. वाले वायुयानकी अपेक्षा गमनका अन्तर नहीं निकाला जा सकेगा। चलते हुये कच्छपकी गतिमें मध्यमें स्थिरता होनेपर ही हिरणको गतिसे अन्तर पड सकता है । घडीकी छोटी सुई और बडी सूई सदा चलती रहती हैं। फिर भी बडी सूईकी द्रुतगतिसे छोटी सूईका मध्यमें ठहर ठहरकर चलना प्रतीत हो जाता है। शीघ्र गति और मन्द गतिमें अन्तर पड जानेकी इसके अतिरिक्त और क्या परिभाषा हो सकती है ? चलती हुई रेलगाडीमें बैठा हुआ मनुष्य चल भी रहा है । अन्यथा गिर जानेपर उसके दौडते हुये मनुष्यकी चोट समान चोट कैसे आ जाती है ! सिद्धान्त यह है कि प्रायः सभी पदार्थ स्थिर, अस्थिररूप प्रतीत हो रहे हैं जब कि सम्पूर्ण वस्तुओंको नित्य, अनित्य आत्मकपना प्रतीत हो रहा है, तो विरोधदोषकी सम्भावना नहीं है । प्रत्यक्ष प्रमाण और अनुमानसे उन ध्रुव, अध्रुवस्वरूप वस्तुओंका चारों ओरसे ज्ञान हो रहा है । अन्यथा यानी एकान्त रूपसे ध्रुव या केवल अध्रुव हो रही वस्तुकी कभी भी प्रतीति नहीं होती है । इस कारण ध्रुव अध्रुव पदार्यके अवग्रह आदिक ज्ञान हो जानेमें कोई बाधा उपस्थित नहीं हो पाती है।
परमार्थतो नोभयरूपतार्थस्य तत्रान्यतरस्वभावस्य कल्पनारोपितत्वादित्यपि न कल्पनीयं नित्यानित्यस्वभावयोरन्यतरकल्पितत्वे तदविनाभाविनोपरस्यापि कल्पितत्व. प्रसंगात् । न चोभयोस्तयोः कल्पितत्वे किंचिदकल्पितं वस्तुनो रूपमुपपत्तिमनुसरति यतस्तत्र व्यवतिष्ठते वायमिति तदुभयपंजसाभ्युपगंतव्यम् ।
कोई एकान्तवादी बहक कर यदि यों कहें कि वास्तविकरूपसे पदार्थका ध्रुव, अध्रुव दोनों स्वरूपपना ठीक नहीं है। उन दोनों से एक ध्रुव ही या अध्रुव ही स्वरूपसे वस्तुका. तदात्मकपना समुचित है । दोनोंमेंसे शेष बचा हुआ धर्म कल्पनासे आरोप दिया गया है। वस्तुभूत नहीं है। माचार्य कहते हैं कि एकान्तवादियोंको इस प्रकार मी कल्पना नहीं करना चाहिये । क्योंकि नित्य
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