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तत्त्वार्थ लोकवार्तिके
रहा है। ध्यानी पुरुषको मन इन्द्रियद्वारा ध्रुव, अध्रुवका ज्ञान विशदरूपसे अनुभूत है । बालकोंको अनेक पदार्थोके रासनप्रत्यक्षमें ध्रुव, अध्रुवके ज्ञानका प्रकृष्ट, अप्रकृष्टरूपसे अनुभव है।
___ यदि कश्चिद्धव एवार्थः कश्चिदधुवः स्यात्तदा स्याद्वादिनस्तत्रावग्रहावबोधमाचक्षाणस्य खसिद्धांतषाधः स्यान पुनरेकमर्थ कयंचिधुवमधुवं चावधारयतस्तस्य सिद्धांत सुमसिद्धत्वात् स तथा विरोधी बाधक इति चेत् न, तस्यापि सुमतीते विषयेऽनवकाशात् । प्रतीतं च सर्वस्य वस्तुनो नित्यानित्सात्मकत्वात् । प्रत्यक्षतोनुमानाच तस्यावबोधादन्यथा जातुचिदमतीतेः। ___ हां, यदि कोई पदार्थ तो ध्रुव ही होता और कोई पदार्थ अध्रुव ही होता तब तो उस धुव एकान्त या अध्रुवएकान्त पदार्यमें अवग्रह ज्ञानको बखान रहे स्याद्वादीके यहां अपने अनेकान्त सिद्धान्तसे बाधा उपस्थित होती । किन्तु जब फिर एक ही पदार्थको किसी अपेक्षासे ध्रुवस्वरूप और अन्य सम्भावनीय अपेक्षासे अध्रुवस्वरूप अवधारण करा रहे उस अनेकान्तवादीके सिद्धान्तमें नित्य, अनित्यस्वरूप अर्थकी अच्छी प्रमाणोंसे सिद्धि हो रही है, ऐसी दशामें कोई आपत्ति नहीं उपस्थित हो सकती है। यहां क्षणिकवादी या नित्यवादी यदि यों कहें कि तिस प्रकार वस्तुके ध्रुव, अध्रुवखरूप माननेपर तो वह प्रसिद्ध हो रहा विरोध दोष बाधक खडा हुआ है। सुमेरु पर्वत स्थिर है तो वह चंचल नहीं हो सकता है । मेघ, बिजली या हायीका कान चंचल है तो वे स्थिर नहीं कहे जा सकते हैं । सहानवस्थान नामक विरोध दोष आता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार एकान्तियोंका कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि अच्छे प्रमाणोंसे प्रतीत हो रहे विषयमें विरोधदोषका अवकाश नहीं है। सुमेरु पर्वत भी सूक्ष्म पर्यायदृष्टिसे विचारनेपर अस्थिर प्रतीत हो जाता है । वृक्षोंके कंपनेसे या प्रतिक्षण असंख्यात स्कन्धोंके आने जानेसे तथा शिला, मिट्टी शादिमें मन्द मन्दक्रिया हो जानेसे सुमेरुमें भी सूक्ष्म सकंपपना प्रसिद्ध है । जैसे लकडी नम जाती है, वैसे ही शिला भी नम्र हो जाती है । आठ हाथ चौडे घर की छत पर पाटनेके लिये ठीक ठीक दोनों ओर की ऊंचाईपर पटिया धर दी जाय फिर एक ओरकी मीत पर पटियाका शिरा दवा कर दूसरी ओरकी भीत परसे पटियाके नीचेकी एक इंटका परत निकाल लिया जाय तो ऐसी दशामें पटियाका पांयिता एक सूत झुक जायगा। बात यह है कि लोहा, चांदी, सोना, रांगा, घृत, तैल, दूध, जल, इन पदार्थोंमें द्रवपना (पतला होकर बहना ) अधिक है । और पत्थरमें अत्यल्प द्रवत्व है । पत्थरकी शिला यदि कुछ दूर तक तिरक जाय तो तिरकनकी कमती बढती कुछ दूरतक चली गयी । चौडाई ही इस सिद्धान्तकी साक्षी है कि अधिक चौडे खाली स्थानके निकटवती पाषाण स्कन्ध सकम्प होकर इस ओर उस ओर हो गये है। तथा कुछ आगेके शिलाप्रदेश थोडा द्रवत्व होनेसे न्यून फट पाये हैं। जब कि उससे कुछ आमेके शिलाप्रदेश सर्वथा कम्प नहीं होनेसे जुडे हुये हैं । मन्दिरके ऊपर लगी हुयी ध्वजाके समान