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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः सा च यथा सकलस्य वस्त्रादेस्तथा तदवयवानां च केषांचिदिति तत्परिच्छेदिना चक्षुषाऽप्राप्यकारित्वमुपदौकते । . और वह योग्य देशकी अवस्थिति जैसे सम्पूर्ण निकले हुये वस्त्र, हाथी आदि अर्थोके निःसृत ज्ञानमें सम्भवती है, उसी प्रकार उन वस्त्र, हाथी आदिके टुकडे सूत, सूंड, आदिक कितने ही अवयवोंके निकलनेपर अनिःसृत ज्ञानमें भी पायी जाती है । इस प्रकार कुछ अवयवोंको देखकर उन अवयवियोंका परिच्छेद करनेवाली चक्षुकरके अप्राप्यकारीपना प्रसिद्ध हो जाता है । यह चक्षुद्वारा अनिसृतका अवग्रह है और पदार्थीको बखान बखान कर दिखानेके अवसरपर कुछ अर्थाका कथन नहीं होनेपर भी अभिप्रायद्वारा चक्षुसे अनुक्तका अवग्रह हो जाता है। प्रतिभाशाली विद्वान् अनिःसृत और अनुक्त सुख, दुःख इच्छाओंका मन इन्द्रियसे अवग्रह कर लेते हैं। बाजा बजनेसे राग पहचान लिया जाता है। स्वस्मिन्नस्पृष्टानामवद्धानां च तदवयवानां कियता चित्तेन परिच्छेदनात् तावता चानिसृतानुक्तावग्रहादिसिद्धेः किमधिकेनाभिहितेन । स्पष्ट बात यह है कि अपनेमें नहीं रहे और बन्धको नहीं प्राप्त हो रहे उस विषयी अवयवी तथा उसके कितने ही एक अवयवोंका उस चक्षुकरके परिच्छेद हो जाता है । बस, तितने से ही अनिसृत, अनुक्त अर्थोके चक्षु और मनकरके अवग्रह आदिक प्रसिद्ध हो जाते हैं। अधिक बढाकर कहनेसे क्या लाम है ! अर्थात्-इस विषयमें अधिक कहना व्यर्थ है । " पुढे सुणोदि सई अपुढे पुणवि पस्सदे रूवं । गंधं रसं च पासं पुढे बद्धं विजाणादि" यह सिद्धान्त सौलहौ आना पक्का है। यहांतक अनिःसृत और अनुक्तका विचार हो चुका है। ध्रुवस्य सेतरस्यात्रावग्रहदिर्न बाध्यते । नित्यानित्यात्मके भावे सिद्धिः स्याद्वादिनोंजसा ॥ ४२ ॥ पदार्थोको एकान्तरूपसे अध्रुव अथवा ध्रुव ही कहनेवाले वादियोंके प्रति आचार्य महाराज कहते हैं कि इस प्रकरणमें ध्रुव पदार्थके और इतर सहितके यानी अध्रुव पदार्थके हो रहे अवग्रह आदिक ज्ञान बाधित नहीं हो पाते हैं । क्योंकि स्याद्वादियोंके यहां निर्दोषरूपसे नित्य, अनित्य, आत्मक पदार्थों में ज्ञप्ति हो रही है। अर्थात् कथंचित् नित्यकी अपेक्षा होनेपर अर्थको उतनाका उतना ही जानता हूं, कमती बढती नहीं जानता हूं, इस प्रकार पहिलेके ग्रहणसमान ध्रुवरूपसे यथावस्थित अर्थको जान लेता है । इसमें धारावाहिकज्ञान होनेकी शंका नहीं करना । क्योंकि अंश, उपांशोंसे अर्थोको निश्चल जान रहा जीव अपूर्व अर्थको ही जान रहा है। तथा संक्लेश और विशुद्धि परिणामोंसे सहकृत हो रहा जीव कथंचित् अनित्यपनकी विवक्षा करनेपर पुनः पुनः न्यून, अधिक, इस प्रकार अध्रुव वस्तुका परिज्ञान करता है । यह बालवृद्ध नारीजनोंतकमें प्रसिद्ध हो
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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