________________
५०२
. .
तत्त्वार्थलोकवार्तिके
सभी सामान्य जीवोंकरके नहीं जाने जाते हैं । अतः अनिसृत या अनुक्त अर्थका वह अवग्रह किसी विशिष्ट ज्ञानीके माना गया है। ___कथं तर्हि चक्षुरनिद्रियाभ्यामनिसृतानुक्तावग्रहादिस्तयोरपि प्राप्यकारित्वमसंगादिति चेत्र, योग्यदेशावस्थितेरेव प्राप्तेरभिधानात् । तथा च रसगंधस्पर्शानां स्वग्राहिभिरिंद्रियैः स्पृष्टिबंधस्वयोग्यदेशावस्थितिः शब्दस्य श्रोत्रेण स्पृष्टिमात्रं रूपस्य चक्षुषाभिमुखतयानतिदूरास्पृष्टतयावस्थितिः।
पुनः वैशेषिक कटाक्ष करते हैं कि तो तुम जैन विद्वान् बताओ कि चक्षु और मनकरके मला अनिसृत और अनुक्त अर्थके अवग्रह आदिक ज्ञान कैसे हो सकेंगे ? क्योंकि यों तो उन चक्षु और मनको भी प्राप्यकारीपनका प्रसंग हो जावेगा । अर्थात्-सूक्ष्म अवयवोंके साथ प्राप्ति की विवक्षा करनेपर तो चक्षु और मनद्वारा अवग्रहीत अर्थकी भी कुछ कुछ प्राप्ति हो जाती है, जो कि जैनोंको अभीष्ट नहीं है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो कटाक्ष नहीं करना । क्योंकि योग्यदेशमें अवस्थित हो जानेको ही यहां प्राप्तिपदसे कहा गया है। अवग्रहका लक्षण " इन्द्रियार्थसमवधानसमनन्तरसमुत्यसत्तालोचनान्तरभावी सत्तावान्तरजातिविशिष्टवस्तुपाहीज्ञानविशेषोऽवग्रहः " ऐसा न्यायदीपिकामें कहा है । " विषयविषयिसनिपातसमनन्तरमाधग्रहणमवग्रहः ” यह राजवार्तिकमें लिखा है। यहां इन्द्रिय और अर्थोका योग्य देशमें स्थित रहना प्राप्ति माना गया है। पदार्थके दूर रहते हुये भी चक्षु और मनका योग्यदेशपना बन जाता है । किन्तु शेष चार इन्द्रियोंका अर्थसे सम्बन्ध हो जानेपर ही योग्यदेश अवस्थान बन सकता है । और तैसा होनेपर रस गंध और स्पर्शीकी अपने अपनेको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियोंकरके स्पर्श कर और बन्ध होकर सम्बन्ध हो जानेपर अपने योग्य देश अवस्थिति बनजाती है। हां, शब्दकी योग्य देश अवस्थिति तो
व इन्द्रियके साथ केवल स्पर्श हो जानेपर ही मिल जाती है । तथा चक्षुके साथ रूपकी योग्य देश अवस्थिति तो अभिमुखपने करके और अधिक दूर या अतिनिकट नहीं होकर स्पर्श नहीं करती हुयी अवस्थिति होना है । अर्थात्-रस, गन्ध और स्पर्शको तो सम्बंध कर और घुल जाना रूप बन्ध हो जानेपर, स्पर्शन, रसना, नासिका, इन्द्रियोंकरके जानलिया जाता है । किन्तु शद्बका केवल कानसे छू जानेपर ही अवग्रह करलिया जाता है । हां, चक्षुके साथ विषयके छूजाने और बंधजाने की आवश्यकता सर्वथा नहीं है । फिर भी इतनी सामग्री अवश्य चाहिये कि दृष्टव्य पदार्थ चक्षुके सन्मुख होय पीछे की ओरके विमुख पदार्थको चक्षु नहीं देख पायेगी । अधिक दूरके वृक्ष, सुमेरु या अतिनिकटवर्ती अंजन, पलक, तिलको भी चक्षु नहीं देख सकती है। अतः योग्य देशमें अवस्थित हो रहे पदार्थको देखनेवाली आंख अप्राप्यकारी मानी जाती है। स्पर्शन मादि चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं। .