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तत्वार्थचिन्तामणिः
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वस्त्र,
स्पर्शवाले अवयव और कठिन स्पर्शवाले अवयव अथवा उष्ण स्पर्शवाले और शीत स्पर्शवाले अवयवोंसे बनाये गये अत्रयवी में जैसे अनुष्णाशीत स्पर्श माना है, उसी प्रकार खट्टा, मीठा आदि रसों या सुगंध दुर्गन्धके मिलानेसे चित्ररस और चित्रगंधकी उत्पत्ति भी हो जानी चाहिये । नाना जातीय रसवाले अवयवोंसे बनाये गये अत्रयवीको रसरहित मानना औलूक्यदर्शनवालों को ही शोभता है । अन्य परीक्षक विद्वानों को ऐसी निस्तत्त्व बात नहीं रुचती है । सर्वथा एक स्वभाववाले पदार्थ में चित्रपका अच्छा व्यवहार कभी नहीं होता है । व्यवहार करनेवाले लौकिक पुरुषोंका नाना रूप वाले इन्द्रनीलमणि, माणिक्य, पन्ना, लहसनीयां, आदि अनेक पदार्थोंमें या इन मणियोंकी बनी हुई माला चित्रपनका व्यवहार हो जाता है । एक रंग बिरंगे चित्रपत्र में कढे हुये या छपे हुये भूषण, केश, नख आदि अनेक रंग दिखलाये जानेपर चित्रपना व्यवहृत हो जाता है। सिद्धांत अनुसार अनेकरूप स्वभाववाले एक पदार्थकी चित्रपनकरके व्यवस्था हो रही है । जैसे कि चित्रमणि, पंजिका पुष्प ( पंजी ) आदि में चित्रता है । हिलब्वी कांचमेंसे सूर्यकिरण या दीपक सम्बन्ध हो जानेपर अनेक आभाऐं जैसे दीखती हैं, उसी प्रकार चित्रमणिकी अनेक वर्ण रेखायें दीखती रहती हैं । अन्य पदार्थोंको चित्रपना नहीं माना गया है। जलमें घोल दिये गये नीले, पीले, लाल, हरे अनेक रंगों के समान कोई मिला हुआ चित्र वर्ण नहीं है । वह तो संयुक्त नया रंग बन जाता है । इस प्रकार रंगके पचासों भेद हो जाते हैं । किन्तु दो, तीन, चार, पांच या मिश्रितोंको जोडकर छह सात आठ आदि रंगोंका मिलाकर बनाया गया कोई स्वतंत्र रंग नहीं माना गया है । चित्रवर्णको यदि सर्वथा स्वतंत्र रंग माना जायगा तो अनेक प्रकारके रंगोंके मिश्रणसे नाना चित्र मानने पड जायंगे, यह अतिव्याप्ति या अतिप्रसंग दोष हुआ ।
यथानेकवर्णमणेर्मयूरादेर्वानेकवर्णात्मकस्यैकस्य चित्रव्यपदेशस्तथा सर्वत्र रूपादावपि स व्यवतिष्ठते नान्यथा । न ह्येकत्र चित्रव्यवहारो युक्तः संतानांतरार्थनीलादिवत् नाप्यनेकत्रैव तद्वदेवेति निरूपितमायम् ।
जिस प्रकार कि अनेक वर्णवाले मणि या मयूर, नीलकण्ठ, चीता, चितकबरा घोडा, आदि अथवा अनेक वर्णस्वरूप हो रहे कपडे पत्र, आदि एक पदार्थके चित्रपनका व्यवहार लोकप्रसिद्ध है, तिसी प्रकार सभी रूप, स्पर्श, रस आदिमें भी वह उसी ढंगले व्यवस्थित होगा, दूसरे प्रकारोंसे नहीं निर्णीत किया जा सकेगा, सर्वथा एक स्वभाव हो रहे पदार्थ में चित्रपनेका व्यवहार युक्त नहीं है । जैसे कि अन्य देवदत्त, जिनदत्त आदिकी नाना सन्तानोंके विषय हो रहे अर्थोके नील, पीत आदिका मिलाकर चित्रपना नहीं बन पाता है । तथा सर्वथा अनेक पदार्थोंमें भी वह चित्रपना नहीं बन सकता है । जैसे कि अनेक सन्तानोंके ज्ञान द्वारा जान लिये गये न्यारे न्यारे अर्थोके उन भिन्न भिन्न नील पीत आदिका मिलकर चित्र नहीं बन सकता है । अर्थात् - एकका
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