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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
विभुद्वय संयोगकी बात न्यारी है । ऐसी दशामें अनेक ईंट या अनेक काठोंके अन्य अनेक ईट काठोंके साथ हो रहे संयोग न्यारे न्यारे हुये, एक संयोग नहीं हो सका, जो कि नगर कहा जा सके।
चित्रैकरूपवचित्रकसंयोगो नगराधेकमिति चेन, साध्यसमस्वादुदाहरणस्य । न होकं चित्रं रूपं प्रसिद्धसभयोरस्ति ।
नील अवयव, पीत अवयव, आदिसे बनाये गये अवयवीमें वर्तरहे कर्बुर या चित्रविचित्र एकरूप नामक गुणके समान चित्रसंयोग भी एक गुण मान लिया जायगा जो कि एक चित्र संयोग ही नगर, ग्राम, आदि एक पदार्थ बन जायगा। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि चित्रवर्ण नामका उदाहरण ही साध्यके समान असिद्ध है। असिद्ध उदाहरणसे साध्य नहीं सधता है। लौकिक और परीक्षकोंके यहां या हमारे तुम्हारे दोनोंके यहां एक चित्ररूप कोई प्रसिद्ध नहीं है । तुम भले ही न्यारे कर्बुररूपको मानो, हम तो अनेक नील, पीत, आदिको मिलाकर नया बन गया चित्ररूप नहीं मानते हैं । एक चित्रमें भी न्यारे न्यारे स्थानोंपर न्यारे म्यारे नील, पीत, आदि वर्ण विचित्र हो रहे माने हैं । अतः पांच वर्णोसे अतिरिक्त कोई छठा चित्रवर्ण नहीं है । अनेक रंगोंके मिलकर तो फिर पचासों रंग बन सकते हैं। उनकी क्या कथा है ! वे तो पांच रूपोंके ही भेद, प्रभेद, हो जायंगे।
यथा नीलं तथा चित्रं रूपमेकं पयादिषु । चित्रज्ञानं प्रवर्तेत तत्रेत्यपि विरुध्यते ॥ २४॥ . चित्रसंव्यवहारस्याभावादेकत्र जातुचित् । नानार्थेष्विंद्रनीलादिरूपेषु व्यवहारिणाम् ॥ २५॥ एकस्यानेकरूपस्य चित्रत्वेन व्यवस्थितेः । मण्यादेवि नान्यस्य सर्वथातिप्रसंगतः ॥ २६ ॥
वैशेषिक कहते हैं कि शुक्ल, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश, कर्बुर, (चित्र ) आदि अनेक प्रकारके रूप होते हैं । तिनमें जिस प्रकार नीला एक रूप है, उसी प्रकार छींट कपडा, रंग विरंगे पुष्प, प्रतिबिम्ब पत्र ( तसवीरें ) आदिकोंमें एक चित्ररूप भी देखा जाता है। उनमें चित्ररूपको ग्रहण करनेवाले जानकी प्रवृत्ति हो जावेगी । प्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार मी वैशेषिकोंका कहना विरुद्ध पड जाता है। क्योंकि नील, पीत आदि रूपोंको मिलाकर एक चित्र रंग नहीं बन सकता है । अन्यथा चित्र रस या चित्रगंध, बन जानेका भी प्रसंग हो जायगा । नीले, पीले, पार्थिव अवयवोंसे जैसे चित्ररूपवाला अवयवी आरब्ध हो जाता माना है। या कोमल