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तत्वार्थचिन्तामणिः
है, इस प्रकारके बहुत पदार्थोको युगपत् जाननेवाले अनेक अर्थोका एकज्ञान होता हुआ अनुभवा जा रहा है । यदि तुम यों कहो कि संख्या करने योग्य अोसे सर्वथा भिन्न हो रही बहुत्वनामक संख्या गुणको इकट्ठा कर जान रहा पुरुष " बहुत अर्थ हैं" ऐसा अनुभव कर लेता है। क्योंकि वे बहुतसे अर्थ उस संख्याके समवायसम्बन्धवाले हो रहे हैं । वस्तुतः एक बानसे बहुत्व संख्या इकेलीका बान होता है। किन्तु उस संख्याका सम्बन्ध होनेके कारण सम्बन्धियोंमें आरोप कर लिया जाता है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तुमको प्रतिपत्ति करना अयुक्त है । क्योंकि समवेत ( बहुत्व संख्या ) पदार्थके जाननेसे यदि समवायी पदार्थों ( बहुत अर्थ ) की प्रतिपत्ति होने लगे तब तो घट, पट, आदि अवयवियोंकी ज्ञप्ति हो जानेपर उन घट आदिके अव्यवहितरूपसे समवायी पाश्रय हो रहे उनको बनानेवाले परमाणुओंकी बप्ति हो जानेका प्रसंग हो जायगा । जैसे बहुत संख्याका समवायसम्बन्ध बहुतसे अर्थोंमें हो रहा है, उसी प्रकार अवयवी घटका समवायसम्बन्ध उसको प्रारम्भ करनेवाले अनेक परमाणुओंमें हो रहा है । इसपर यदि तुम यों कहो कि अन्य पदार्थमें प्रतिपत्ति हो जानेसे उससे न्यारे दूसरे पदार्थोंमें तो उसी ज्ञानसे प्रतिपत्ति नहीं हो सकती है । घटको जाननेवाला ज्ञान मला घटसे सर्वथा मिनकारण परमाणुओंको नहीं जान सकता है। तब तो हम जैन कहेंगे कि प्रकृतमें बहुत्व संख्याकी अच्छी इप्ति हो जानेपर भी उस बहुत्व संख्यासे मिन्न बहुत अर्थोकी सम्वित्ति भी नहीं होओ । समवायी और समवेतका कथश्चित् अमेद तुमने माना नहीं है।
येषां तु बहुत्वसंख्याविशिष्टेष्वर्येषु ज्ञानं प्रवर्तमानं बहवोर्या इति प्रतीतिः तेषां न दोषोस्ति, बहुत्वसंख्यायाः संख्येयेभ्यः सर्वथा भेदानभ्युपगमात् । गुणगुणिनोः कथंचिदभेदस्य युक्त्या व्यवस्थापनात् । ततो न प्रत्यर्थवशवर्ति विज्ञानं बहुबहुविधे संवेदनन्यवहाराभावप्रसंगात् ।
जिन स्याद्वादियोंके यहां तो बहुत्व नामकी संख्यायें सन्मुख दखि रहे प्रत्येक पदार्थोंमें एक एक होकर रहती हुयीं अनेक मानी गयीं हैं, उपचार या सादृश्यसे मलें ही उन बहुत संख्याओंको एक कह दिया जाय, ऐसी बहुत्व संख्याओंसे विशिष्ट हो रहे अनेक अर्थोंमें प्रवर्त रहा एक बान ही " ये बहुत अर्थ है " इस प्रकार प्रतीतिरूप हो जाता है, उन जैनोंके यहां तो कोई दोष नहीं आता है। क्योंकि संख्या करने योग्य अनेक पदार्थोसे बहुत्वसंख्याका सर्वथा भेद नहीं माना गया है। उपचारसे एक मान ली गयी बहुत्व संख्या भी मुख्य एक एक बहुत्व संख्याके समान अपने आश्रयसे सर्वथा भिन्न नहीं है । गुण और गुणीके कथंचिद् अभेदको हम युक्तियोंसे व्यवस्थापित कर चुके हैं । तिस कारण प्रत्येक अर्थोके अधीन होकर वर्त रहा विज्ञान नहीं है । अन्यथा यानी एक जानकी एक ही अर्थको विषय करनेकी अधीनतासे वृत्ति मानी जायगी तो बहुत और बहुत