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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
प्रकर्षस्य परमार्थतोभ्यर्हितस्य भावादिति । तदेव यथोक्तक्रमनिर्देशकरणस्य कारणमवसीयते कारणांतरस्याप्रतीतेः।।
बहु, बहुविध, आदिक शब्दोंका इतरइतरयोग नामका द्वन्द्वसमास होनेपर बहुविध शब्दसे पहिले बहुशब्द प्रयुक्त किया गया है । क्योंकि विशेष विशेष अनेक व्यक्तियोंको कहनेवाला वह बहु शब्द अनेक जातियोंको कहनेवाले बहुविध शब्दसे अधिक पूज्य है और वह बहुविध भी क्षिप्र शब्दसे अधिक अर्चनीय है । तथा वह क्षिप्र शब्द भी अनिःसृतसे और वह अनिःसृत भी अनुक्त शब्दसे तथा वह अनुक्त भी ध्रुवशब्दसे अधिक सपर्या करने योग्य है । यहां यदि कोई यो प्रश्न करें कि मुख, तालु, आदि अथवा चेतनप्रयत्नद्वारा उत्पन्न हुये शब्दोंको इस प्रकार अभ्यर्हितपना कैसे है ! बताओ ! उसके प्रति हमारा यह उत्तर है कि उन शब्दोंके वाच्य अर्थोकी परिपूज्यता होनेसे वाचकशब्द भी पूज्य हो जाते हैं । महान पुरुषकी मूर्ति या चित्र भी आदरदृष्टिसे देखा जाता है । फिर कोई पूछे कि उन वाच्य अर्थीको पूज्यपना किस ढंगसे हुआ ? इसका समाधान यों है कि उन महान् अर्थोके ग्रहण करनेवाले ज्ञानोंका अतिपूज्यपना बन रहा है । अर्थात् आत्माका गुण ज्ञान परमपूज्य है। उसमें जो प्रकृष्ट पदार्थ आदरणीय होकर विषय हो रहे हैं, वे भी पूज्य हो जाते हैं । विषयीधर्मका विषयमें आरोपित कर लिया जाता है, जैसे कि जड घटको प्रत्यक्षज्ञानका विषय होनेसे प्रत्यक्ष कह देते हैं । यदि कोई पुनः चोच उठावे कि वह ज्ञान भी पूज्य क्यों है ? इसपर हमारा यह उत्तर है कि निकृष्ट हो रहे ज्ञानावरण और वीयर्यातराय कोके विशेषक्षयोपशमके अत्युत्तम प्रकर्ष होनेसे उत्पन्न हुई, उक्त पूज्यज्ञानोंकी विशुद्धिका प्रकर्ष वास्तविकरूपसे अभ्यर्हित होकर विद्यमान हो रहा है । अर्थात् हमारी ही अन्तरंग विशुद्धि हमको परमपूज्य है । उसकी आत्मीय विशुद्धि उसके कारण विशिष्ट क्षयोपशममें मान ली जाती है। यहां कार्यके स्वकीय धर्मका कारणमें आरोप है । और क्षयोपशमकी प्रकर्षतासे ज्ञानमें पूज्यताका संकल्प है। यहां कारणका धर्म कार्यमें आरोपित किया है। तथा ज्ञानमें पूज्यता आ जानेसे उसके द्वारा जानने योग्य ज्ञेय पदार्योंमें भी पूज्यपनेका अध्यारोप है। यहां विषयीका धर्म विषयमें धर दिया गया है । सूक्ष्म एवंभूतनय तो घट, पट, जिनगुरु, आदिके ज्ञानोंको ही घट, पट, आदि पदार्थ कह रहा है । तथा ज्ञेय पदार्थोमें ज्ञानद्वारा पूज्यपना आ जानेसे उस ज्ञानके वाचक शब्दोंको भी अभ्यर्हितपना आ जाता है । जैसे कि वक्ताके प्रामाण्यसे शब्दमें प्रमाणपना प्राप्त हो जाता है । या पापकी कथाओंका कहना, सुनना, भी यदि श्रोताको व्यतिरेक मुद्रासे शिक्षाद्वारा निवृत्ति मार्गपर नहीं लगा पाता है, तो पापक्रियाके समान ही दुर्गतिका कारण है। व्याकरणमें " कौपीन " शब्दकी निरुक्ति यों की गई है कि " कूपे पातयितुं योग्यं कौपीनं पापं तत्प्रधानकारणत्वात् लिंगमपि कौपीनं तदाच्छादनवस्त्रत्वावस्त्रमपि कौपीनं " यानी जो कूएमें गिराने ( फेंकने ) योग्य पदार्थ है, वह कौपीन है, जो कि पाप है । अतः कौपीनका मुख्य