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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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शब्दार्थ पाप हुआ, किन्तु पापका विशिष्ट कारण होनेसे लिङ्ग भी कोपीन माना गया है । और उस लिंगका आच्छादन करनेवाला वस्त्र भी कौपीन कहा जाता है। यहां तीन स्थलोंपर आरोप किया गया है । तब कहीं कौपीनका अर्थ लंगोटी हो पाया है । प्रतिपादकके ज्ञानका कार्य होनेसे
और प्रतिपाद्य श्रोताके ज्ञानका कारण होनेसे शब्द भी अपने कारण और कार्योंसे वैसे धर्मों (प्रामाण्य ) को प्राप्त कर लेता है। तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् । यद्यपि निश्चयनयसे सम्पूर्ण वस्तुऐं स्वप्रतिष्ठित हैं। फिर भी व्यवहारनयसे विचारनेपर न जाने किसके निमित्तसे कौनसे भले बुरे कार्य जगत्में हो रहे हैं। न जाने किन प्राचीन पुरुषोंके आशीर्वादोंसे या किस लडका, लडकी, बहू आदिके प्रकृष्ट भाग्य अनुसार क्षेम वर्त रहा है । सुमिक्ष, सुराजा, धार्मिक क्रियायें आदि प्रवर्त रहे हैं । अन्यथा कृतघ्नता, दुष्टविचार, बकभक्ति, ईर्षा, कलह, हिंसाभाव, गुरुद्रोह, व्यभिचारपरिणाम, वंचना आदिक कुकर्म तो अधःपतनकी ओर धक्कापेल ले जाय ही रहे हैं । समुदायकृत पुण्यपाप भी प्राम, नगर, देशकी समृद्धि या विपत्तिमें सहायक होता है । कचित् एक ही भैसा पूरी पोखरको खवीला कर देता है। प्रकृतमें यह कहना है कि न जाने किसके निमित्तसे किसमें किसका व्यपदेश हो रहा है । पूज्य आत्माओंके सम्बन्धसे उनका शरीर पवित्र हो जाता है। और पवित्रशरीरके सम्बन्धसे वे स्थान क्षेत्र बन जाते हैं । अतः ऊपर ऊपरसे चली आई हुई पूज्यताके अनुसार ज्ञानद्वारा वाचक शब्दोंमें भी पूज्यता आ जाती है । बहुविध शब्दसे बहुशब्द यों ही तो पूज्य हुआ। अतः सूत्रमें कहे गये पदोंके क्रमसे निर्देश करनेका कारण वही निश्चित किया जाता है । अन्य कोई कारण प्रतीत नहीं हो रहा है । पूज्यताके देखे गये धन, मोटा शरीर, पण्डिताई, कायक्लेश, उपवास, पूजा करना, पढाना, चिकित्सा करना, प्रभाव, कुलीनता, अधिक आयु, तप आदि इन बहिरंग कारणोंका व्यभिचार दोष देखा जाता है । अतः शब्द या अर्थकी पूज्यतामें निर्दोष ज्ञानका पूज्यपना ही कारण है।
विजानाति न विज्ञानं बहून बहुविधानपि । पदार्थानिति केषांचिन्मतं प्रत्यक्षबाधितम् ॥ १४ ॥
एक ही ज्ञान बहुतसे और बहुत प्रकारके पदार्थोको कैसे भी नहीं जान पाता है " प्रत्यर्थ ज्ञानामिनिवेशः " प्रत्येक अर्थको जानने के लिये एक एक ज्ञान नियत है । इस प्रकार किन्हीं विद्वानोंका. मत है । वह प्रत्यक्षसे ही बाधित है । अर्थात्-एक चाक्षुष प्रत्यक्ष ही सामने आये हुये अनेक वृक्षों, मनुष्यों, धान्यों, पशुओं, आदिको जान लेता है । जातिरूपसे प्रमेयोंको जाननेवाले शान अनेक प्रकारके अर्थोको जान रहे हैं । अतः प्रत्येक ज्ञानका विषय एक नियत पदार्थ मानना या प्रत्येक विषयका एक नियतज्ञान मानना प्रत्यक्षविरुद्ध है । अनेक. ज्ञान धारावाहिकरूपसे एक विषयको मानते रहते हैं । अनेक ज्ञानोंके समुदायभूत ध्यानमें एक विषय देरतक ज्ञात होता रहता