________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
- जातिका आश्रय कर भेदोंको प्रकाशनेवाले बहुविध पदार्थोके जानकी अपेक्षासे विशेषरूप अधिक पदार्थोको विषय करनेवाला होनेके कारण बहुका ज्ञान अच्छा चारों ओर पूजनीय है । यह स्पष्ट प्रतीत हो रहा है । अर्थात् जातिका अवलम्ब कर पदार्थोंका जानना उतना स्पष्ट नहीं है, जितना कि व्यक्तियोंका आश्रय कर पदार्थीका जानना विशद या आदरणीय है । अतः बहुविधसे पहिले बहुका कहना प्रशस्त है । तथा सामान्यरूपसे शीघ्र ही पदार्थको जाननेकी अपेक्षा उस बहुविषका ज्ञान करना आदरणीय है । अतः क्षिप्रके पूर्वमें बहुविध कहा है । तथैव वह क्षिप्रका ज्ञान भी अनिःसृत ज्ञानसे वाध्य है । अनिःसृत पदार्थको बतानेकी अपेक्षा छात्रको शीघ्र बतानेपर अधिक लब्धांक प्राप्त हो जाते हैं । और उस अमुक्तकी ज्ञप्तिसे अनिःसृतका ज्ञान अभ्यर्चित है। छल, कपटपूर्ण जगत्में अनुक्त पदार्थको समझना जितना सरल है, उतना इन्द्रियों द्वारा अनिःसृत पदार्थका समझना सुकर नहीं है। वह अनुक्तज्ञान भी किसी कारणवश ( अपेक्षा ) ध्रुवज्ञानसे पूजनीय है । अचलितको जाननेकी अपेक्षा मायावियोंके अनुक्त अभिप्रेतोंका या विद्वानोंकी मूढ चर्चाका पता पालेना कठिन है । अतः अल्पस्वरपना, सुसंज्ञापन, आदिका लक्ष्य न रखकर अर्चनीयका विचार करते हुये श्री उमास्वामी आचार्यने बहु, बहुविध, आदि सूत्रमें पदोंका क्रम कहा है । दोमें पूर्वप्रयोग करनेके लिये अन्यतरपर विशेषदृष्टि रक्खी जाती है। बहु तो इतनी नहीं । शिष्योंकी जिज्ञासा या प्रतिपत्तिके क्रमकी खाभाविक प्रसिद्धि इसी प्रकार है।
तत्चद्विषयबहादेः समभ्यर्हितता तथा । बोध्यं तद्वाचकानां च क्रमनिर्देशकारणं ॥ १३ ॥
उन उन बहु, बहुविध, आदिको विषय करनेपनकी अपेक्षासे बहु आदिके ज्ञानोंको अधिक पूजनीयपना समझ लेना चाहिये । तथा उन बहु आदिकके वाचक शब्दोंके भी क्रमसे निर्देश करनेका कारण वही अभ्यर्हितपना समझ लेना चाहिये । पूज्यके ज्ञानरूप ध्यानसे पुण्य प्राप्त होता है । वैसा ही पूज्यका नामकथन करनेसे भी पुण्य मिलता है । ज्ञानको समझानेके लिये शब्दके अतिरिक्त अन्य अच्छा उपाय कोई नहीं है। पूज्य पदार्थोके साथ वाचक सम्बन्ध हो जानेसे शद्ध पूज्य हो जाता है । यहांतक कि भूमि, काल, वायु, आसन, आदि भी पूज्य हो जाते हैं । क्षेत्र पूजा, कालपूजा, या विशिष्ट पुरुषों के उपकरणोंका सत्कार इसी मित्तिपर किये जाते हैं। .
बहादीनां हि शब्दानामितरेतरयोगे द्वंद्वे बहुशब्दो बडुविधशब्दात्माक् प्रयुक्तोभ्यहितत्वात् सोपि क्षिपशब्दात् सोप्यनिःमृतशब्दात्सोप्यनुक्तशब्दात् सोपि ध्रुवशब्दाद । एवं कयं शब्दानामभ्यर्हितत्वं तद्वाच्यानामनामभ्यहितत्वात् । तदपि कथं ? तग्राहिणां ज्ञानानामभ्यर्हितत्वोपपचेः, सोपि ज्ञानावरणवीर्यातरायक्षयोपशमविशेषप्रकर्षादुक्तविशुद्धि