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तवार्थचिन्तामणिः
उक्त कारिकाओंमें बहु और अबहुके अवग्रह आदिक जैसे कह दिये हैं, उसी प्रकार वहुविध यानी तीन, चार, आदि बहुत प्रकारोंके अथवा विस्तीर्ण प्रकारोंके तथा उस बहुविधसे इतर यानी एक दो प्रकारके अथवा अल्प प्रकारके विषयोंका अवग्रह होता है। क्षिप्र यानी शीघ्र कालमें हो रही प्रवृत्तिका अथवा उससे इतर यानी अधिक कालकी प्रवृत्तिका अवग्रह होता है । अनिसृत यानी जिसके सम्पूर्ण पुद्गल उपरको नहीं निकल रहे हैं, उसका और तदितर यानी जिसके सम्पूर्ण पुद्गल ऊपर प्रकट हो रहे हैं, उस पदार्थका अवग्रह हो जाता है। जो विना कहे ही अभिप्राय करके ठीक जान लिया गया है, उसका अवग्रह होता है। और उससे इतर जो सम्पूर्णरूपसे शद्बोंद्वारा प्रकाशित कर दिया गया है, उस पदार्थका अवग्रह हो जाता है । तथा ध्रुव यानी चलित नहीं हो रहेका और इतर यानी विचलित हो रहे का अवग्रह होता है। इस प्रकार पूर्णरूपसे बहु आदिक बारहके साथ अवग्रह ज्ञानका सम्बन्ध कर लेना चाहिये । तिस ही प्रकार ईहा तथा अवाय और तिसी ढंगसे धारणा यह मी सम्बन्ध कर लेना चाहिये । यों अडतालीस भेद हो जाते हैं । समुदायसे अमिसम्बन्ध करना अभीष्ट नहीं है । क्योंकि अनिष्ट की प्रतिपत्तिका कारण है। अतः वह खण्डित कर दिया गया है । अर्थात्-बहुत प्रकारके बहुत नहीं कहे गये निकले हुये पदार्थोका स्थिरतासे शीघ्र अवग्रह ज्ञान हो जाता है । इस प्रकारका समुदित अर्थ अनिष्टबोधका कारण होनेसे निराकृत कर दिया गया है। अतः बारहोंमेंसे न्यारे न्यारे विषयके अवग्रह आदिक ज्ञान होते हुये माने हैं।
कयं बहुबहुविधयोस्तदितरयोश्च भेद इत्याह ।
बहु और बहुविध तथा उनसे इतर एक और एकविध इनमें क्या भेद है। ऐसी आकांक्षा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं।
व्यक्तिजात्याश्रितत्वेन बहोर्बहुविधस्य च ।
भेदः परस्परं तद्वद्बोध्यस्तदितरस्य च ॥ ५॥
बहु और एक, दो, अबहु ये धर्म तो व्यक्तिविशेषोंके आश्रित हैं । तथा बहुविधपना और एकविधपना ये जातिके आश्रित विषय हैं । अतः बहुका व्यक्तिके आश्रितपना होनेसे तथा बहुविधको जातिके आश्रित होनेसे उनमें परस्परमें भेद है। उसीके समान उनसे इतर यानी एक और एक विधका व्यक्ति और जातिके आश्रित होनेसे परस्परमें भेद समझना चाहिये।
व्यक्तिविशेषौ बहुत्वतदितरत्वधर्मी जातिविषयौ तु बहुविधत्वतदितरत्वधर्माविति बहुबहुविधयोस्तदितरयोश्च भेदः सिद्धः।
बहुत्व और उससे मिन अल्पत्व धर्म तो पृथक् पृथक् विशेष व्यक्तिरूप हैं। तथा बहुविधपना और उससे मिन अल्पविधपना धर्म तो अनेकोंमें प्रवर्तनेवाले जातिविशेष हैं। इस प्रकार बहु और