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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
लजाका निवारण करना, ठाठ प्रगट करना, ये कार्य एक बनौलेसे नहीं सधते हैं । तथा क्षुधा निवृत्ति होकर तृप्ति होना, रसना इन्द्रिय द्वारा सुमधुर स्वाद प्राप्त होना ये कार्य फीकी छोटी गन्नेकी गांठसे नहीं पूर्ण हो पाते हैं। पर्यायोंसे निभनेवाले कार्योको शक्तियां नहीं कर पाती हैं । अतः अधिक प्रतिपत्ति करानेवाले परोपकारी ग्रन्थकारोंसे ऐसे निरर्थक लाघवकी अभिलाषा रखना ही बढी हुई लघुता है।
कथं तर्हि बहादीनां कर्मणामवग्रहादीनां च क्रियाविशेषाणां परस्परमभिसंबंध इत्याह ।
तो फिर यह बताओ कि बहु, बहुविध, आदिक विषयभूत कोका और अवग्रह आदिक विषयी क्रियाविशेषोंका परस्परमें सब ओरसे कौनसा सम्बन्ध हो रहा है ! इस प्रकार शुश्रूषु प्रतिपाघोंकी महती जिज्ञासा होनेपर आचार्य महाराज वार्तिक श्लोकोंद्वारा समाधान कहते हैं।
बहाद्यवग्रहादीनां परस्परमसंशयम् । प्रत्येकमभिसंबंधः कार्यों न समुदायतः ॥२॥ बहोः संख्याविशेषस्यावग्रहो विपुलस्य वा । क्षयोपशमतो नुः स्यादीहावायोथ धारणा ॥ ३ ॥ इतरस्याबहोरेकद्वित्वाख्यस्याल्पकस्य वा । सेतरग्रहणादेवं प्रत्येतव्यमशेषतः ॥ ४॥
बहु आदिक कोका और अवग्रह आदि क्रियाओंका परस्परमें प्रत्येकके साथ संशयरहित होकर पर्याप्तरूपसे सम्बन्ध कर देना चाहिये । समुदायरूपसे सम्बन्ध नहीं करना चाहिये । आत्माके क्षयोपशम होनेसे संख्याविशेष बहुतका अथवा अधिक परिमाणवाले विपुल पदार्थका अवग्रह हो जाता है । तथा बहुत संख्या या विपुलपदार्थके ईहा, अवाय, और धारणाज्ञान क्षयोपशम अनुसार हो जाते हैं । इसी प्रकार इतर सहितके ग्रहणसे इतर अर्थात् अबहु यानी एक, दो, नामक संख्या विशेष अथवा अल्पपदार्थ के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा हो जाते हैं । इसी ढंगसे सम्पूर्ण बहुविध आदिक और अबहुविध आदि विषयोंके अवग्रह, ईहा आदिक पूर्णरूपसे समझलेने चाहिये ।
___ बहुविधस्य व्यादिमकारस्य विपुलपकारस्य वा तदितरस्यैकद्विप्रकारस्याल्पकारस्य वा, क्षिपस्याचिरकालप्रवृत्तेरितरस्य चिरकाळप्रवृत्तेः, अनिःसृतस्यासकलपुद्गलोद्गतिमत इतरस्य सकलपुद्गलोद्गतिमतः, अनुक्तस्याभिप्रायेण विज्ञेयस्येतरस्य सर्वात्मना प्रकाशितस्य, ध्रुवस्याविचलितस्येतरस्य विचलितस्यावग्रह इत्यशेषतोवग्रहः संबंधनीयः, तथहा तयावा. यस्तथा धारणेति समुदायतोभिसंबंधोनिष्टपतिपत्तिहेतुः प्रतिक्षिप्तो भवति ।