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तत्वार्थचिन्तामणिः
पहिले विकल्प अनुसार केवल मनसे ही उत्पमा दुई हा नहीं है। क्योंकि समी इन्द्रियोंके व्यापारकी अपेक्षा रखनेवाली ईहा स्पष्ट प्रतीत हो रही है। आत्मा और इन्द्रियके न्यापार नहीं होनेपर उस ईहाकी उत्पत्तिके अभावका निर्णय हो रहा है । अर्थात्-केवल मनसे ही हा उत्पन नहीं हो जाती है। किन्तु आत्मा और बहिरंग इन्द्रियां भी ईहाकी उत्पत्तिमें न्यापर करती हैं। अतः उभयजन्या ईहा है।
न हि मानसं प्रत्यक्षमीहास्तु स्पष्टत्वादशज्ञानसमनंतरमत्ययस्वाच निश्चयात्मकमपि जात्यादिकल्पनारहितमभ्रांतं चेति कश्चित् । तदनिश्चयात्मकमेव निर्विकल्पस्याभ्रांतस्य च निश्चयात्मविरोधादित्यपरः । तन्मतमपाकुर्वनाह ।
केवल मन इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ही ईहा ज्ञान नहीं है। क्योंकि वह ईहाबान स्पष्टपना होनेके कारण और इन्द्रियजन्य अवग्रहबानके अव्यवहित उत्तरवर्तीज्ञान होनेके कारण निश्चय वात्मक भी है। अर्थात्-मानस प्रत्यक्षके अतिरिक्त भी सविकल्पक, निश्चय आत्मक, अन्य ईहाज्ञान सम्भवते हैं। यहां कोई कह रहा है कि वह ईडाशान जाति, सम्बन्ध, शद्वयोजना, आदि कल्पनाओंसे रहित है और भ्रान्तिरहित है “ कल्पनापोढमभ्रान्त प्रत्यक्षं" इस प्रकार कोई ताथागत विद्वान् कह रहा है । तथा वह ईहाज्ञान जनिश्चयस्वरूप ही है, निश्चय आत्मक नहीं है । क्योंकि भ्रान्तिरहित निर्विकल्पक ज्ञानको निश्चयस्वरूप होनेका विरोध है । इस प्रकार कोई दूसरा बौद्ध कह रहा है । उनके मतका निवारण करते हुये आचार्यमहाराज समाधान कहते हैं।
नापीयं मानसं ज्ञानमक्षवित्समनंतरं । निश्चयात्मकमन्यद्वा स्पष्टभं तत एव नः ॥४५॥
यह ईहाज्ञान मन इन्द्रिय जन्य मानस प्रत्यक्ष ही नहीं है। क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञानके अव्यषहित उत्तरकालमें ईहाबान उत्पन्न होता है और तिस ही कारण ईहाज्ञान निश्चय वात्मक अथवा अन्य भी अगृहीतग्राहक, प्रतिपत्ताको अपेक्षणीय, समारोप निषेधक आदि विशेषणोंसे युक्त है। हम स्याद्वादियोंके यहां तभी तो ईहाज्ञान स्पष्ठ प्रकाशनेवाला इष्ट किया गया है। अतः वह झूठी कल्पनारूप नहीं है। . तस्य प्रत्यक्षरूपस्य प्रमाणेन प्रसिद्धितः।
खसंवेदनतोन्यस्य कल्पनं किमु निष्फलम् ॥ ४६ ॥
सांव्यवहारिक प्रत्यक्षस्वरूप हो रहे उस ईहाज्ञानकी प्रमाणकरके प्रसिद्धि हो रही है। इस कारण और स्वसम्वेदन प्रत्यक्षसे भी ईहाज्ञान प्रत्यक्षस्वरूप हो रहा है। अतः इस प्रकरणमें अन्य कल्पनारूप ज्ञान क्यों व्यर्थ माना जाता है ! ईहाबान ही पर्याप्त है।