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तस्वार्थश्लोकवार्तिके
समानरूप होनेपर भी एकपनेका निर्णय नहीं कराती है । तब तो हम जैन कहेंगे कि यह उपाय अच्छा है। हमारे यहां भी वह क्षयोपशमस्वरूप योग्यता मानी गयी है। इन्द्रियजन्य विकल्पज्ञानोंके स्पष्टपनमें वह स्पष्टज्ञानावरण क्षयोपशमरूप योग्यता ही कारण है। अन्य अनुमान, आगम बान, या भ्रान्तज्ञानोंके स्पष्टता नहीं करा सकती है । क्योंकि अनुमान आदि बानोंमें आपकी मानी हुई वासना और हमारी मानी हुई विशदपनेका हेतु योग्यता विद्यमान नहीं है।
तन्निर्णयात्मकः सिद्धोवग्रहो वस्तुगोचरः । स्पष्टाभोक्षबलोद्भूतोऽस्पष्टो व्यंजनगोचरः ॥४३॥
तिस कारण सिद्ध हुआ कि सामान्य, विशेषात्मक वस्तुको विषय करनेवाला व्यवसाय आरमक अवग्रह ज्ञान है, इन्द्रियोंकी सामर्थ्य से उत्पन्न हुआ द्रव्यरूप व्यक्त अर्थको प्रकाशनेवाल। अर्थावग्रह स्पष्ट है और अव्यक्त हो रहे शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श, स्वरूप व्यंजनको जाननेवाला व्यंजन अवग्रह अस्पष्ट है । स्पष्टता और अस्पष्टताका, संबंध विषयसे नहीं है। किन्तु विषयी ज्ञानके कारण ज्ञानावरण क्षयोपशम विशेषसे है।
स्पष्टाक्षावग्रहज्ञानावरणक्षयोपशमयोग्यता हि स्पष्टाक्षावग्रहस्य हेतुरस्पष्टाक्षावग्रहज्ञा. नावरणक्षयोपशमलक्षणा पुनरस्पष्टाक्षावग्रहस्येति तत एवोभयोरप्यवग्रहः सिद्धः परोपगमस्य वासनादेस्तदेतुत्वासंभवात् ।।
स्पष्ट इन्द्रियजन्य अवग्रहज्ञानका आवरण करनेवाले कौके क्षयोपशमरूप योग्यता तो नियमसे इन्द्रिजन्य स्पष्ट अवग्रहका कारण है और अस्पष्टइन्द्रिय अवग्रहज्ञानके आवरण कर्मीका क्षयोपशम खरूप योग्यता तो फिर अस्पष्ट इन्द्रिय अवग्रहका हेतु है । इस प्रकार तिस ही कारण अर्थ, व्यंजन दोनोंका भी अवग्रह सिद्ध हो जाता है। दूसरे बौद्ध, अद्वैतवादी, आदि विद्वानों द्वारा मानी गयी वासना, युगपत्रवृत्ति, इन्द्रिय, अविद्या, आदिको स्पष्टपन या अस्पष्टपनको लिये हुये हो रहे इन्द्रियजन्य उस अवग्रह मतिज्ञानकी हेतुताका असम्भव है । यहांतक अवग्रहका विचार हो चुका है।
संपतीहां विचारयितुमुपक्रम्यते । किमनिद्रियजैवाहोस्विदक्षजैवोभय जैव वैति । तत्र
अब प्रकरणप्राप्त ईहाका इस समय विचार करनेके लिये उपक्रम रचा जाता है। क्या मन इन्द्रियसे ही उत्पन्न होनेवाली ईहा है ! अथवा क्या बहिरंग इन्द्रियोंसे ही उत्पन्न हो रहा ईहाज्ञान है ! या इन्द्रिय अनिन्द्रिय दोनोंसे उत्पन्न हो रहा ही ईहा ज्ञान है ! इस प्रकार प्रश्न होनेपर उनमेंसे एक एक विकल्पका विचार करते हैं।
नेहानिद्रियजेवाक्षव्यापारापेक्षणा स्फुटा । वाक्षव्यापत्यभावेस्याः प्रभवाभावनिर्णयात् ॥ ४४ ॥