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तस्वार्थचिन्तामणिः
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भ्रमी जीवोंको एकको देखकर सबको वैसा जाननेकी टेव पड गयी है। भाई विचारो तो सही,भ्रान्तज्ञानोंका भला समीचीनज्ञानोंके साथ मेल मिलाते रहनेसे कोई लाभ नहीं निकलता है।
सहभावोपि गोदृष्टितुरंगमविकल्पयोः । किन्नकत्वं व्यवस्यंति स्वेष्टदृष्टिविकल्पवत् ॥ ३९ ॥ प्रत्यासत्तिविशेषस्याभावाचेत्सोत्र कोपरः । तादात्म्यादेकसामग्यधीनत्वस्याविशेषतः ॥ ४०॥
यदि बौद्ध यों कहें कि नील स्वलक्षणके निर्विकल्पक और सविकल्पक ज्ञानोंका सहभाव यानी साथ साथ उत्पत्ति होना हो रहा है। अतः दोनोंके धर्मोका परस्परमें बटजाना होकर एकपनेका आरोप हो जाता है । तब तो हम जैन कहते हैं कि इस प्रकार अपने अभीष्ट हो रहे नीलदर्शन और नीलविकल्पोंके समान वह सहभाव भी गोदर्शन और अश्वविकल्पोंमें एकपनेका व्यवसाय क्यों नहीं करा देता है ! अर्थात्-निर्विकल्पकज्ञान धारामें हुये प्रत्यक्ष गोदर्शनमें सविकल्पकज्ञान धाराके अविशद अश्वविकल्पका परस्पर धर्म बंटना हो जाना चाहिये । यदि बौद्ध यों कहें कि गोदर्शन और अश्वविकल्पमें इष्ट की गयी विशेष प्रत्यासत्ति नहीं है। अतः एकके धर्मका दूसरे में आरोप नहीं होता है । किन्तु नील स्खलक्षणके दर्शन और नील विकल्पमें वह विशेष प्रत्यासत्ति एकविषयत्व विद्यमान है। अतः निर्विकल्पक और सविकल्पका एकत्व अध्यवसाय हो जाता है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो हम कहेंगे कि वह विशेषप्रत्यासत्ति भला तादात्म्यसम्बन्धके सिवाय और न्यारी क्या हो सकती है। एक ही सामग्रीके अधीनपनारूप सम्बन्ध तो दोनों यानी नीलदर्शन नीलविकल्प और गोदर्शन अश्वविकल्पमें विशेषतारहित होकर विद्यमान है । अतः एक सामग्रीके वश रहनापन तो नियामक नहीं हो सका । हां, तादात्म्य सम्बन्धसे सब निर्वाह हो जाता है।
तादृशी वासना काचिदेकत्वव्यवसायकृत् । सहभावाविशेषेपि कयोश्चिद्दग्विकल्पयोः ॥४१॥ साभीष्टा योग्यतास्माकं क्षयोपशमलक्षणा । स्पष्टत्वेक्षविकल्पस्य हेतुर्नान्यस्य जातुचित् ॥ ४२ ॥
फिर भी बौद्ध यदि अपनी रक्षाकी गलीको झांक कर यों कहें कि तिस प्रकारको कोई आत्मामें लगी हुई विशेषवासना है, जो कि किन्हीं किन्हीं विशेष दर्शन विकल्पोंमें ही एकत्वके अध्यवसायको करती है। किन्तु गोदर्शन, अश्वविकल्प, आदि सभी दर्शनविकल्पोंमें सहभावके