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"तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
प्रतीत हो जाता है । दूसरा प्रकार उन्होंने यों माना है कि दो ज्ञानधाराओंकी साथ साथ प्रवृत्ति हो रही है । अतः मनरूप दो ज्ञानोंकी युगपत् प्रवृत्ति होनेके कारण व्यवहारी जन मोहसे सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञानोंकी एकताका निर्णय कर लेते हैं, अथवा दो ज्ञानधाराओं में सदा बह रही सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञानोंकी प्रवृत्तियां ही मोहसे दोनोंके ऐक्यका निश्चय करा देती हैं । अतः व्यवहारी पुरुष सविकल्पकके व्यवसायधर्मका निर्विकल्पक ज्ञानमें अध्यारोप कर लेता है और निर्विकल्पक के स्पष्टत्व धर्मका सविकल्पक मिथ्याज्ञानमें अध्यवसाय कर लेता है । ग्रन्थकारका निरूपण है कि इस प्रकार बौद्धों का कहना प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि पृथक् पृथक्
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स्वार्थ व्यवसाय हो रहा देखा जाता है । किसी पदार्थ में प्रकृतधर्मकी बाधा उपस्थित होनेपर फिर कदाचित् उस धर्म दीख जानेसे वहां उसका आरोप कर लिया जाता है । जैसे जपाकुसुमके सन्निधान से स्फटिक में रक्तिमाका आरोप किया जाता है, किन्तु सर्वदा सम्यग्ज्ञानोंके स्वार्थव्यवसायका जब सम्वेदन हो रहा है तो ऐसी दशा में अध्यारोप करनेका अवकाश नहीं रहता है । अन्यथा कोई भी धर्म किसीके आत्मभूत नहीं सघ सकेंगे । आत्माके ज्ञानको, घटके रूपको, शद्ब के क्षणिक पनेको, भी यहां वहांसे आरोपित कर लिये गये कहनेवालेका मुख टेडा नहीं हो जायगा । व्यवहार में स्त्री, पुत्र, धन, गृह, पदार्थ, किसीके घरू नहीं बन सकेंगे । झूठे आरोपे गये या चुराये गये ही मान लिये जायेंगे |
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लैंगिकादिविकल्पस्यास्पष्टात्म त्वोपलंभनात् ।
युक्ता नाक्षविकल्पानामस्पष्टात्मकतोदिता ॥ ३७ ॥ अन्यथा तैमिरस्याक्षज्ञानस्य भ्रांततेक्षणात । सर्वाक्षसंविदो भ्रांत्या किन्नोर्ह्यते विकल्पकैः ॥ ३८ ॥
लिंगजन्य अनुमानज्ञान या श्रुतज्ञान आदि विकल्पज्ञानोंका अविशदपना देखनेसे इन्द्रिजन्य
चुके हैं। अर्थात्
विकल्पज्ञानों को भी अविशदस्वरूपना कहना युक्त नहीं है, इसपर हम कह समीचीन ज्ञानका स्वभाव स्वपरनिर्णय करना है। चाहे वह सर्वज्ञका ज्ञान होय और भले ही अल्पज्ञानीका सबसे छोटा ज्ञान व्यंजनावग्रह ही क्यों न होय । टिमटिमाते हुये लघुदीपकका और महाप्रकाशक सूर्यका स्त्रपरप्रकाशपना धर्म एकसा है। निश्चयनवसे सब जीवोंकी आत्मायें एकसी हैं । तथा कुछ ज्ञानोंको अस्पष्ट देखकर सभी ज्ञानोंको अविशद नहीं कहो । अन्यथा यानी अनुमान के समान प्रत्यक्षज्ञानको भी यदि अस्पष्ट कह दिया जावेगा तब तो तमारा रोगवाले तैमिरिक पुरुषके चक्षु इन्द्रियजन्य ज्ञानका भ्रान्तपना देखनेसे निर्दोष आंखोंवाले अन्य सम्पूर्ण जीवोंके इन्द्रियप्रत्यक्षों की भी भ्रान्तिरूपसे तर्कणा क्यों नहीं कर ली जाय ? क्योंकि विकल्प करनेवाले बौद्ध सदृश