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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
निर्विकल्पकया दृष्ट्या गृहीतेथें स्खलक्षणे ।
तदान्यापोहसामान्यगोचरोऽवग्रहो स्फुटः॥३३॥
बौद्ध निवेदन करते हैं कि परमार्थभूत निर्विकल्पक दर्शनकरके वस्तुभूत अर्थ स्खलक्षणका ग्रहण जब किया जा चुका है, तब कहीं पीछेसे अवस्तुभूत अन्यापोह सामान्यको विषय करनेवाला अवग्रह ज्ञान होता है। यह विद्यार्थी है, यह वन है, इस प्रकार झूठे सामान्यको जान रहा अवग्रह सब जीवोंके प्रकट होकर अनुभूत हो रहा है। अथवा " अहग्रहोस्फुटः ” ऐसा अच्छा पाठ होनेपर तो सामान्यग्राही अवग्रह अस्पष्ट [अविशद] ज्ञान है । अतः अवग्रह विशद नहीं हो सका।
सहभावी विकल्पोपि निर्विकल्पकया दृशा।
परिकल्पनया वातो निषेध्य इति केचन ॥ ३४॥ ___बौद्ध ही कह रहे हैं कि निर्विकल्पक दर्शनके पीछे दुआ नहीं मान कर उसके साथ समान समयमें हुआ भी अवग्रहरूप विकल्पज्ञान तो निर्विकल्पक दर्शन करके अथवा दूसरी प्रतिकल्पना करके निषेध्य हो जाता है । अतः अवग्रह ज्ञान प्रतिसंख्यानसे अविरोध्य नहीं हो सका, इस प्रकार कोई बौद्धपण्डित कह रहे हैं । अब आचार्य उत्तर कहते हैं कि
तदसत्स्वार्थसंवित्तेरविकल्पत्वदूपणात् । सदा सव्यवसायाक्षज्ञानस्यानुभवात्स्वयं ॥ ३५॥
वह बौद्धोंका निवेदन करना समीचीन नहीं है। क्योंकि सम्यग्ज्ञानोंके द्वारा हुई स्व और अर्थकी सम्वित्तिको निर्विकल्पकपनेका दूषण है । सर्वदा ही निश्चय आत्मक सहित हो रहे इन्द्रियजन्य बानोंका स्वयं अनुभव हो रहा है। निर्विकल्पक ज्ञानोंसे स्वार्थोकी सस्विति नहीं हो पाती है। सविकल्प ज्ञानोंका आदर करना सीखो।
मनसोयुगपत्तिः सविकल्पाविकल्पयोः । मोहादेक्यं व्यवस्तीत्यसत्पृथगपीक्षणात् ॥ ३६ ॥
बौद्धोंके यहां ज्ञान परणतियोंके दो प्रकार माने हैं । एक तो एक ही ज्ञानधारामें क्रमसे शीघ्र शीघ्र निर्विकल्पकज्ञान और सविकल्पकज्ञान उपजते रहते हैं । शीघ्र घुमाये गये पहियेमें एकके ऊपर दूसरा अरा आजानेसे एकपनेकी परिच्छित्ति हो जाती है । झट चक्कर लग जानेसे अराओंका मध्यवर्ती अन्तराल छिप जाता है । कचित् अरोंकी ठोसाई छिप कर स्वाली गोल ही दीखती रहती है। उसीके सदृश एक ज्ञानधारामें आगे पीछे अतिशीघ्र हुये निर्विकल्पक सविकल्पक ज्ञानोंका ऐक्य
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