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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
मानसस्मरणस्याक्षज्ञानादुत्पत्त्यसंभवात् । विजातीयात्प्रकल्पयेत यदि तत्तस्य जन्म ते ॥ ४७ ॥ तदाक्षवेदनं च स्यात्समनंतरकारणम् । मनोध्यक्षस्य तस्येव वैलक्षण्याविशेषतः ॥ ४८ ॥
यदि ईहाको मन इन्द्रियजन्य स्मरणज्ञान माना जायगा तो ईहाकी बहिरंग इन्द्रियजन्य ज्ञानोंसे उत्पत्ति होना असम्भव हो जायगा । क्योंकि इन्द्रियप्रत्यक्षज्ञान से मानसस्मरणकी जाति न्यारी है । तैसा होनेपर यदि विजातीय इन्द्रियज्ञानसे भी उस मानसस्मरणकी उत्पत्तिको तुम बौद्धों के यहां हर्षपूर्वक कल्पित कर लिया जावेगा तब तो मानसप्रत्यक्षका अव्यवहित पूर्ववर्त्ती कारण इन्द्रियज्ञान हो सकेगा। क्योंकि तिस ही के समान विलक्षणपना विशेषतारद्दितरूपसे रह जाता है। अर्थात -- बौद्धोंने विजातीयज्ञानसे भिन्न जातिवाले ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं मानी थी । किन्तु अब तो इन्द्रियज्ञानसे मानसस्मरणरूप ईहाकी उत्पत्ति स्वीकार कर ली। ऐसी दशामें मानस प्रत्यक्षका कारण इन्द्रियप्रत्यक्ष भी हो सकेगा, भले ही वह भिन्न जातिवाला होय ।
प्रत्यक्षत्वेन वैशद्यवस्तुगोचरतात्मना । सजातीयं मनोध्यक्षमक्षज्ञानेन चेन्मम् ॥ ४९ ॥ स्मरणं संविदात्मत्व संतानैक्येन वस्तथा ।
किन्न सिध्येद्यतस्तस्य तत्रोपादानकारकम् ॥ ५० ॥
यदि बौद्धों का यह मन्तव्य होय कि परमार्थवस्तुको विशदरूपसे विषय करलेनापन धर्मकी अपेक्षासे मानसप्रत्यक्ष भी इन्द्रियजन्यज्ञान के समानजातिवाला है, तब तो हम जैन कहेंगे कि तुमने जैसे इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्षको प्रत्यक्षपनेसे सजातीय मान लिया है, उसी प्रकार तुम बौद्धों के यहां ज्ञानस्वरूपपन और संतानके एकत्वकी अपेक्षासे स्मरण भी इन्द्रियज्ञानके साथ समानलक्षणत्राला सजातीय क्यों नहीं सिद्ध हो जाय, जिससे कि उस इन्द्रियज्ञानको उस स्मरणमें या ईहा ज्ञानमें उपादानकारणपना बन जायगा, अर्थात् — स्मरण या ईहाका उपादान कारण इन्द्रियजन्य ज्ञान हो सकता है । ज्ञानपनेसे सजातीयता है । सजातीयात् सजातीयमुत्पद्यते न तु विजातीयात् ॥ अन्यथा न मनोध्यक्षं स्मरणेन सलक्षणं ।
अस्योपादानतापायादित्यनर्थककल्पनम् ॥ ५१ ॥
अन्यथा यानी उक्त प्रकारसे सजातीयपनका यदि निर्वाह नहीं किया जायगा तो स्मरणके साथ सजातीय मानस प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा । ऐसी दशा में इस मानसप्रत्यक्षको स्मरणकी उपादान