SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 468
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थो वार्तिके उत्पन्न कराना अथवा अपने विषय में हान, उपादान, उपेक्षा, बुद्धियां उत्पन्न करा देना भी है । जब इन्द्रियोंसे उपज रहा अवग्रह इतना बढ़िया होकर इतने उत्तम प्रमाण योग्य कार्योंको कर रहा है, तब तो उसे इन्द्रियजन्य नहीं मानना और इसी कारण प्रमाण नहीं मानना दिन दहाडे अन्याय करना है । ४५१ द्रव्यपर्याय सामान्यविशेषयोवग्रहोक्षजो युक्तः प्रतिसंख्यानेनाविरोध्यत्वाद्विशदत्वाच्च तस्यानक्षजत्वे तदयोगात् । शक्यंते हि कल्पनाः प्रतिसंख्यानेन निवारयितुं नेंद्रियबुद्धय इति स्वमिष्टेः । मनोविकल्पस्य वैशद्यानिषेधः ।... 66 " " यह शुक्ल वस्तु है 66 यह पुस्तक है " इस प्रकार सामान्य रूपसे द्रव्य और विशेषस्वरूपसे पर्यायोंको विषय करनेवाले अवग्रह ज्ञानको इन्द्रियोंसे जन्य कहना युक्त ही है । क्योंकि अवग्रह ज्ञान प्रतिकूल साधक प्रमाणों करके विरोध करने योग्य नहीं है, तथा अवग्रहज्ञान स्पष्ट है । यदि उस अवग्रहको इन्द्रियोंसे जन्य नहीं माना जायगा तो प्रतिकूल प्रमाणोंसे विरोध करने योग्य हो जायगा और उस विशदज्ञानपनेका अयोग हो जावेगा । जैसे कि मिथ्यावासनाओंसे उत्पन्न हुए मनोराज्य आदिके विकल्पज्ञान प्रमाणोंसे विरोध्य हैं और स्पष्ट नहीं हैं, "कल्पना ज्ञान तो प्रतिकूल प्रमाणोंकरके निवारण किये जा सकते हैं, किन्तु इन्द्रियजन्य ज्ञान तो अन्य ज्ञानोंसे बाध्य नहीं हैं " इस प्रकार आप बौद्धोंने स्वयं अपने ग्रंथोंमें अभीष्ट किया है । मन इन्द्रियजन्य सच्चे विकल्पज्ञानके विशदपनका निषेध नहीं किया गया है । प्रमाणं चायं संवादकत्वात्साधकतमत्वादनिश्चितार्थनिश्चायकत्वात् प्रतिपत्त्रपेक्षणीयत्वाच्च । न पुनर्निर्विकल्पकं दर्शनं तद्विपरीतत्वात्सन्निकर्षादिवत् । फलं पुनरवग्रहस्य प्रमाणत्वे स्वार्थव्यवसितिः साक्षात्परंपरयात्वीहा हानादिबुद्धिर्वा । तथा विकल्पस्वरूप होनेसे अवग्रह ज्ञानको अप्रमाण कहना ठीक नहीं है । यथार्थरूपसे देखा जाय तो यह विकल्पज्ञान ही ( पक्ष ) प्रमाण है ( साध्य ) निर्वाधरूप सम्वादकपना होनेसे ( हेतु १ ) प्रमितिका साधकतम होनेसे ( हेतु दूसरा ) अनिश्चित अर्थोका निश्चित करानेवाला होनेसे ( हेतु तीसरा ) और अर्थोकी प्रतिपत्ति करनेवाले आत्माओंको अपेक्षा करने योग्य होनेसे ( हेतु चौथा ) किन्तु फिर बौद्धोंद्वारा माना गया वस्तु, वस्तु अंश, संसर्ग, विशेष्य, विशेषण, अर्थविकल्प आदि कल्पनाओंसे रहित हो रहा निर्विकल्पक दर्शन तो ( पक्ष ) प्रमाण नहीं है। ( साध्य ) उस प्रमाणत्व के साधक हेतुओंसे विपरीत प्रकारके हेतुओंका प्रकरण ( हेतु ) अर्थात् विसम्वादकत्व यानी साधपना या निरर्थक प्रवृत्ति जनकपना होनेसे ( हेतु पहिला ) प्रमितिका करण नहीं होने से ( हेतु दूसरा ) अनिश्चित अर्थका निश्चय करानेवाला नहीं होने से ( हेतु तीसरा ) जिज्ञासु पुरुषोंको अपेक्षणीय नहीं होनेसे ( हेतु चौथा ) जैसे कि वैशेषिकोंद्वारा माने गये सन्निकर्ष या कापिलोंद्वारा मानी गयी इन्द्रियवृत्ति आदिक प्रमाण नहीं हैं ( अन्वयदृष्टान्त ) । प्रकरण में
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy