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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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उत्पत्ति करने में विलम्ब करते रहते हैं । और कार्यकी उत्पत्तिके अवसरको उसी प्रकार टाल देते हैं । जैसे कि कोई कृपण धनाढ्य या जिसका पेटा खाली है, वह योग्य अर्थियोंको बातोंमें उडा देता है । भले ही सामान्य क्षयोपशम हो गये हों, किन्तु उनके अतिशयोंकी पूर्णता ज्ञानके पूर्वक्षण में ही होती है । इस विषयको श्रीविद्यानन्द आचार्यने स्त्रोयश अष्टसहस्री प्रन्थ में विशेष स्पष्ट किया है । " उपज्ञाज्ञानमाद्यं स्यात् " देवागमस्तोत्र ( अन्तमीमांसा ) की टीका अष्टराती है । और अष्टशती के प्रतीकोंपर अष्टसहस्री रची गयी है।
अत्रापरः प्राह । नाक्षजोवग्रहस्तस्य विकल्पात्मकत्वात्तत एव न प्रमाणमवस्तुविषयत्वादिति तं प्रत्याह ।
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यहां कोई दूसरा बौद्ध विद्वान् सगर्व कह रहा है कि अवप्रहृज्ञान इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ नहीं है । वह अवग्रह तो विकल्पस्वरूप ज्ञान है । इन्द्रियां तो संकल्प, विकल्परूप ज्ञानोंको नहीं उत्पन्न करा सकती हैं । विकल्प करना तो मिथ्यावासनाओंका कार्य है । इन्द्रियां तो निर्निकल्पक ज्ञानको उत्पन्न करती हैं। जब कि अवग्रह ज्ञान विकल्पस्वरूप है । तिस ही कारण वह अवस्तुको विषय करनेवाला होनेसे प्रमाणज्ञान नहीं माना गया है। इस प्रकार जो वादी कह रहा है, उसके प्रति आचार्य महाराज स्पष्ट उत्तर कहते हैं ।
द्रव्यपर्यायसामान्यविषयोवग्रहोक्षजः ।
तस्यापरविकल्पेनानिषेध्यत्वात् स्फुटत्वतः ॥ ३१ ॥
* सामान्यरूपसे द्रव्य और पर्यायोंको विषय करनेवाला अवग्रहमान अवश्य ही इन्द्रियोंसे जन्य सम्भव जाता है। क्योंकि वह अवग्रहज्ञान अन्य विकल्पज्ञानोंसे निषेध करने योग्य नहीं है । यदि वह अवग्रहज्ञान मिथ्या माने गये विकल्पज्ञानस्वरूप होता तो अन्य विकल्पोंसे बाधने योग्य हो जाता । जैसे कि सीपमें हुये चांदीके विकल्पज्ञानको " यह चांदी नहीं है इस प्रकारका उत्तर समयवर्त्ती विकल्पज्ञान बाघ लेता है। तथा यह अवप्रहृज्ञान स्पष्ट भी
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। इन्द्रियजन्यज्ञान स्पष्ट
अतः एकदेश - वैशध
हो रहे माने गये हैं । किन्तु बौद्धोंने विकल्पज्ञानोंको स्पष्ट नहीं माना है । होनेसे अवग्रहज्ञान इन्द्रियोंसे जन्य साधलिया जाता है ।
संवादकत्वतो मानं स्वार्थव्यवसितिः फलं । साक्षाद्यवहितं तु स्यादीहा हानादिधीरपि ॥ ३२ ॥
यह अवग्रहज्ञान ( पक्ष ) प्रमाण है ( साध्य ), सम्वादकपना होनेसे ( हेतु ), जो ज्ञान सफलप्रवृत्तिजनक या बाधारहितरूप सम्वादक होते हैं, वे प्रमाण होते हैं । इस अवग्रहज्ञानका साक्षात् फल तो अपना और अर्थका निर्णय करना है । तथा परम्पराप्राप्त - फळ तो ईहा ज्ञानको