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तखार्प लोकवार्तिके
हेतुका दर्शन होता है । पीछे ब्यासिका स्मरण किया जाता है । पुनः पक्षवृत्तित्व ज्ञानकरके अनुमान कर लिया जाता है। आगमज्ञानमें भी क्रम देखा जाता है । शब्दका श्रोत्र इन्द्रियसे श्रावण प्रत्यक्ष कर संकेतका स्मरण करते हुये और इस शब्दमें वैसे ही पूर्वसांकेतिक शब्द्वका सादृश्यप्रत्यभिज्ञान करते हुये आगम ज्ञान उपजता है । अत्यन्त अधिक अभ्यास हो जानेसे उक्त ज्ञानोंकी झटिति प्रवृत्ति हो जाती है । अतः स्थूलदृष्टिजीवोंको उनका अन्तराल नहीं दीख पाता है । वस्तुतः आत्माके सम्पूर्ण ज्ञानोंकी निर्दोष रूपसे कम करके ही प्रवृत्ति होती है। आंखका पलक मीचनेमें लगे असंख्यात समयोंमें बानकी असंख्यातपर्यायें हो जाती हैं । अत्यधिक अभ्यास हो जानेसे आशुवृत्तिका दीखना नहीं होता है। जैसे शीघ्र पुस्तकको बाचनेवाला जन अक्षरोंपर क्रमसे जानेवाली दृष्टिकी शीघ्र क्रमप्रवृत्तिको नहीं निरखपाता है। ऊपर कहे हुये घट आदिक दृष्टान्त वे ही पकडना जो क्रमसे हो रहे सम्भवते हैं। यदि किसीने जुडे हुये दो घटोंकी या चार घडोंकी हटली बनाई यहां प्रथम तो शिवक, छत्र, स्थास, आदिके क्रमसे दो या चार घट उपजे हैं। किन्तु वर्षदिनों पीछे दो घडे या चार घडेके अवयवीमेंसे काट देने पर जो एक घट कार्य उत्पन्न हो गया है, " भेद संघातेभ्य उत्पद्यन्ते " यह तो शिवक, छत्र आदि अवयवोंके क्रमसे उत्पन्न हुआ नहीं है । पाषाणमें उकेरी गयी प्रतिमा भी अवयवक्रमसे नहीं बनाई है। तथा किसीको हेतुदर्शन करते हो अभेददृष्टि से स्वार्थानुमानरूप मतिज्ञान युगपद हो जाता है । अतः तिस प्रकार क्रमसे हो रहे दृष्टान्तोंको हमारी ओरसे दार्टान्तोंमें लागू करना । दृष्टान्तोंपर किसीको कुचोध नहीं उठाना चाहिये । वादीको व्यक्तिरूप दृष्टान्त देनेका अधिकार है। अतः किसी अन्य विशेष दृष्टान्तको पकड कर दार्टान्तके रहस्यको निर्बल करना अन्याय है । रस, रक्त, मांस, मेद, हड्डी, मज्जा, शुक्र, की उत्पत्ति या शद्बोंकी क्रमप्रवृत्ति अथवा अपकश्रेणी, केवलान, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती, व्युपरत क्रियानिवृत्ति इनकी क्रमसे उत्पत्ति होनेके समान अवग्रह आदिक ज्ञान क्रमसे ही होते हैं । भले ही उनका क्षयोपशम युगपत् हो जाय, फिर भी क्षयोपशममें विशिष्ट चमत्कार तो क्रमसे ही उपजेगा। ___ ततः क्रमभुनोवग्रहादयो अनभ्यस्वदेवादाविवाभ्यस्वदेशादौ सिदाः स्वावरणक्षयोपशमविशेषाणां क्रमभावित्वात् ।
तिस कारण सिद्ध हुआ कि अभ्यास नहीं किये गये देश, स्थानवर्ती आदि पदार्थोंमें जैसे अवग्रह आदिक ज्ञान क्रमसे हो रहे सिद्ध हो जाते हैं, उसी प्रकार अभ्यास प्राप्त हो रहे देश, काल, पदार्थ, आदिमें भी क्रमसे ही हुये सिद्ध समझने चाहिये। क्योंकि अपने अपने आवरण कोके क्षयोपशमकी विशेषताऐं क्रमसे ही होनेवाली हैं। एक नयका सिद्धान्त है कि उदय कालमें ही बन्ध हुआ कहना चाहिये । यद्यपि कोका बन्ध पहिले ही हो जाता है। किन्तु बन्धे हुये दोनों पदार्थोकी गुणच्युति जब होय तमी बन्ध कहना शोभा देता है । पहिले तो विनसोपचपके समान व्यर्थ पड़ा रहता है। अनेकक्षणस्थायी कारणोंमें भतिशय नहीं पैदा होनेके कारण ही वे कार्यकी