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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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पहिले इन्द्रिय और अर्थकी योग्यदेशमें अवस्थिति हो जानेपर दर्शन होता है, पीछे अवग्रह हो जाता है, अनन्तर आकांक्षारूप ईहा ज्ञान होता है, पुनः अवाय, उसके पीछे धारणाज्ञान होते हैं, उसी प्रकार निकटदेशवती पदार्थमें सम्बिदितस्वरूप माने जा रहे अवग्रह आदिकोंकी क्रमसे होती हुई प्रवृत्ति क्यों नहीं जानी जाती है ? समीपदेशके पदार्थमें तो युगपत ये ज्ञान होजाते हैं। इसपर आचार्य उत्तर कहते हैं कि नैयायिक या वैशेषिकोंके यहां भी विशेषणविशेष्यका या सामान्यविशेष आदि ज्ञानोंका क्रमसे होना नहीं अनुभूत हो रहा है । किन्तु इसी प्रकार अवग्रह आदिकके समान उन ज्ञानोंका क्रमसे प्रवर्तना समानरूपसे तुमने माना है । उसमें यदि नैयायिक जो यह समाधान करें कि हम क्या करें, तिस प्रकारका उन विशेषणविशेष्य आदि ज्ञानोंका क्रमसे प्रवर्तना कचित् प्रत्यक्षसे कहीं अनुमानसे जाना जा रहा है। पहिले दण्ड आदि विशेषणोंका ज्ञान होता है। उसके अव्यवहित उत्तरकालमें पुरुष ( दोशी ) आदि विशेष्योंका ज्ञान जन्मता है । किन्तु युगपत् हो रहा सरीखा दीखता है । वह समाधान तो यहां अवग्रह आदिमें भी उपयोगी हो जाता है । सौ पत्तोंकी गड्डी बनाकर सूईसे छेदनेपर क्रमसे ही उनमें सूई जाती है । झटिति संचार हो जानेसे अक्रम सरीखा दीखता है । बात यह है कि जब एक पुद्गल परमाणु एक समयमें चौदह राजू चला जाता है, तो सूई भी भले ही एक समयमें लाखों पत्तोंको छेद डाले। स्थूलदृष्टिसे परप्रसिद्धि अनुसार दृष्टान्त दे दिया गया है। किन्तु क्रमवर्ती अवग्रह आदिक ज्ञानोंकी उत्पत्ति तो एक समयमें कथमपि नहीं हो सकती है । आत्माके उपयोग आत्मक ज्ञामपरिणाम एक समयमें एक एक ही होकर उपजते हैं। एक समयमें दो उपयोग नहीं हो पाते हैं । अवग्रहके पहिले दर्शन अवश्य रहना चाहिये । ईहाके पूर्वमें अवग्रह पर्याय अवश्य उपज लेनी चाहिये। अवायके प्रथम भी ईहाज्ञानका रहना आवश्यक है । तथा अवायज्ञानके पूर्वसमयवर्ती होनेपर ही पहिला धारणाज्ञान धारण किया जाता है। हां, पिछले अवाय भले ही अवायपूर्वक होते रहें या पिछली धारणाओंकी धारा विशेषांशोंको जानती हुई भले ही धारणापूर्वक चलती रहे, फिर भी स्थास,, कोश, कुशूल, घट या बाल्य, कौमार, युवत्व, वृद्धत्वके समान अवग्रह आदिकोंका क्रम अनिवार्य है।
तथैवालोचनादीनां गादीनां च बुध्यते । संबंधस्मरणादीनामनुमानोपकारिणाम् ॥ २९ ॥ अत्यंताभ्यासतो ह्याशु वृत्तेरनुपलक्षणम् । क्रमशो वेदनानां स्यात्सर्वेषामनियानतः॥३०॥ ...
तिस ही प्रकार कापिलोंने आलोचन, संकल्प, अभिमान, अध्यवसायको क्रमसे होना समझा है। तथा अद्वैतवादियोंके यहां दर्शन, श्रवण, मनन, विदध्यासनको क्रमप्रवृत्ति जानी गयी है। अनुमानका उपकार करनेवाले सम्बन्धस्मरण आदिका, कमसे प्रवर्तना जाना जा रहा है। पहिले