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तत्त्वार्य चिन्तामणिः
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अवग्रह नामका मतिज्ञान प्रमाणसिद्ध हो जाता है। प्रमाणवानोंका फल अवश्य होना चाहिये । क्योंकि क्रियाके विना करणपना विफल है । अतः अवग्रहज्ञानको प्रमाणपना सिद्ध हो चुकनेपर उसका सक्षात् यानी अव्यवहित उत्तरकाल या समानकालमें ही होनेवाला फल तो स्व और अर्थका व्यवसाय करा देना है । तथा अवग्रहका परम्परासे होनेवाला फल तो ईहाज्ञान अथवा हान, उपादान, उपेक्षाबुद्धियां करा देना है । जैनसिद्धान्त अनुसार दीप और प्रकाश ( अन्धकारनिवृत्ति ) के समान समकाल पदार्थों में भी कार्यकारणभाव मान लिया है। हां, कार्यमें व्यापार करनेवाले कारण कार्यसे पूर्वक्षणमें रहने चाहिये । किन्तु कारणके साथ कथंचित् अभेद सम्बन्ध रखनेवाले निवृत्ति, व्यवहारप्रयोजकत्व, आदि कार्य तो कारणके समानकालमें ठहर जाते हैं । नानापर्यायरूप कार्य और कारणोंका एक समयमें ठहरना नहीं होता है । क्योंकि किसी भी पर्यायी पदार्थकी एक समयमें अनुजीवी दो पर्यायें नहीं हो सकती हैं । कोई कोई कार्य जैसे कारणके कालमें रह जाता है, उसी प्रकार जगत्के सम्पूर्ण कार्योंका केवलान्वयी होकर कारण बन रहा प्रतिबन्धकोंका अवायरूप कारण तो कार्यके समानकालमें ठहरना चाहिये । दीपकलिकाकी उत्पत्ति करानेमें बत्ती, तेल, पात्र, दीपशलाका, ये पूर्वसमयमें वर्त रहे हैं । किन्तु प्रतिबन्धक तीववायुका अभावरूप कारण तो प्रदीप उत्पत्ति क्षणमें भी विद्यमान रहना चाहिये । सम्यक्त्व और सम्यग्ज्ञान अथवा पितापन और पुत्रपनके व्यपदेश करनेपर भी समानकालीन पदार्थोंमें कार्यकारणभाव मान लिया गया है । चौदहवें गुणस्थानके अन्त्य समयमें तो संसार है । असिद्धपना है। बारह या तेरह प्रकृतियां आत्मासे लगी हुई है। हां, उस अन्त्यके पिछले समयमें कर्मोका नाश, ऊर्ध्वगमन, सिद्धलोकमें स्थिरता, ये तीनों कार्य हो जाते हैं। इनमेंसे पहिला पहिला उत्तरका एक अपेक्षाकरके कारण भी है। अतः कचित् कोई किसीका समकालीन पदार्थ भी कार्य या कारण बन जाता है। स्याद्वाद सिद्धान्तमें कोई विरोध नहीं आता है।
ननु च प्रमाणात्फलस्याभेदे कथं प्रमाणफलव्यवस्था विरोधादिति चेत् न, एकस्यानेकात्मनो ज्ञानस्य साधकतमत्वेन प्रमाणत्वव्यवस्थितेः । क्रियात्वेन फळत्वव्यवस्थानाद्विरोधानवतारात् ।
यहां नैयायिक शंका उठाते हैं कि प्रमाणसे फलका अमेद माननेपर जैनोंके यहां प्रमाण और फलपनेकी व्यवस्था कैसे होगी ? विरोध दोष आता है। प्रमाणपन और फळधन धर्मोका एक ही समय एक पदार्थमें साथ ठहरना नहीं बनता है । भला कहीं वह वृक्ष ही स्वयं अपना फल बन सकता है ! अर्थात्-नहीं । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि अनेकधर्मखरूप हो रहे एक ज्ञानको भी प्रमितिके साधकतमपनकी अपेक्षा करके प्रमाणपना व्यवस्थित हो रहा है। और उसी ज्ञानको स्वकीय शरीर जानक्रियापनकी अपेक्षासे, फलपना व्यवस्थित कर दिया है । विरोध दोषका अवतार नहीं है । दीप ही प्रकाशका कारण है। और