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तत्वार्थचिन्तामणिः
परिणामोंपर चैतन्यभाव अन्वित हो रहा है। जैसे कि करहियासे अति उष्ण निकाली हुई इमर्तीको चाशनी में डाल देनेपर चारो ओरसे खांड उसके ऊपर लद बैठती है। उसी प्रकार आत्माके स्वसम्वेद्य गुणों पर ज्ञान आत्मकपना लद जाता है। जीवके सम्पूर्ण परिणामोंको चेतन जीवस्वरूपपनेकी अर्पणा करनेवाली नयसे सम्वेदनस्वरूपपना सिद्ध है । जैनसिद्धान्त इस बातको स्वीकार करता है । इस कारण हम स्याद्वादियोंके यहां अपसिद्धान्त हो जानेकी सम्भावना नहीं है। अर्थात् संस्कार, सुख, इच्छा, आदिको ज्ञानपना माननेपर जैन लोग हम वैशेषिकोंके प्रभावमें आकर अपने सिद्धान्तसे स्खलित हो गये, यह जीतकी बाजी मारनेके लिये हृदयमें सम्भावना नहीं करना । क्योंकि हम जैन कालत्रयमें अपने स्याद्वाद सिद्धान्तसे व्युत होनेवाले नहीं हैं। सुमेरुके समान खसिद्धान्तपर आरूढ हैं। जो कुछ हमने कहा है, जैनसिद्धान्त अनुसार ही कहा t
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औपशमिकादयो हि पंच जीवस्य भावाः संवेदनात्मका एवोपयोगस्वभावजीवद्रव्यार्थादेव । तत्र केषांचिदसंवेदनात्मत्वोपदेशादन्यथा तद्व्यवस्थितिविरोधादिति वक्ष्यते ।
जीवके औपशमिक, क्षायोपशमिक, श्रदयिक, पारणामिक पांच भाव सम्यग्दर्शन, ज्ञान, लब्धि, क्रोध, भव्यत्व आदि त्रेपन भेदों में विभक्त हो रहे हैं। ये सब सम्वेदनस्वरूप ही हैं। क्योंकि चैतन्य उपयोगस्वरूप जीव पदार्थको विषय करनेवाली द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे ही वे चेतनस्वरूप हो रहे हैं। तभी तो प्रमाणदृष्टि या पर्यायार्थिक नयसे तिनमें कोई कोई भावोंका असम्वेदमस्वरूपना उपदेश किया गया है । अन्यथा यानी ज्ञानात्मक हुये विना उन भावोंकी ठीक ठीक व्यवस्था होनेका विरोध पडेगा, यह बात आगे प्रन्थमें स्पष्ट कह दी जावेगी । पर्यायदृष्टिसे यद्यपि उपशमचारित्र, इच्छा, आदिक पर्यायें ज्ञानपर्यायसे मित्र हैं । अतः वे कथंचित् असम्वेदनस्वरूप हो सकती हैं । फिर भी चैतन्यद्रव्यका अन्वितपना अपरिहार्य है । अनुकूलवेदन प्रतिकूलवेदनरूप सुखदुःखों का अनुभव हो रहा है। इच्छा, संयम, असंयम, क्रोध, जीवपना, आदि भाव चेतन आत्मक अनुभवे जा रहे हैं । प्रधानगुणकी छाप अन्य गुणोंपर पड़ती है, गन्धद्रव्यवत् ।
तत एव प्रधानस्य धर्मा नावग्रहादयः । आलोचनादिनामानः खसंविचिविरोधतः ॥ २६ ॥
तिस ही कारण यानी चेतन जीवद्रव्यके तदात्मक परिणाम होनेसे ही अवग्रह आदिक ज्ञान सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी साम्य अवस्थारूप प्रकृतिके भी धर्म (स्वभाव) नहीं हैं. 1 जो कि सांख्योंने आलोचन, संकल्प, अभिमान, आदि नामोंसे संकेतित किये हैं । अवग्रह आदिको as प्रकृतिका धर्म मानेपर उनके स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष होनेका विरोध पडेगा । ज्ञानस्वरूप या चेतन जीवस्वरूप पदार्थोंका ही स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष होना सम्भवता है। जड़ धर्मोका स्वसम्वेदन कालमें नहीं हो पाता है ।
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