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तत्त्वार्थ लोकवार्तिके
वह अवाय है । इस प्रकार यह हमारे यहां भी बन जाता है । किन्तु अभिलाषारूप माना गया ईहा ज्ञान और संस्कारस्वरूप धारणा ज्ञान नहीं सिद्ध हो पाते हैं। क्योंकि अभिलाषा तो इच्छा है । वह आत्माका ज्ञानसे न्यारा स्वतंत्र गुण है। तथा भावनारूप संस्कार भी ज्ञानसे न्यारा स्वतंत्र गुण हैं । इच्छा और संस्कार तो ज्ञानस्वरूप नहीं हो सकते हैं । इस प्रकार कोई विद्वान् स्वमत को प्रकृष्ट मानकर भाषण कर रहे हैं । किन्तु उनका वह मन्तव्य व्यवस्थित नहीं हो पाता है । इस प्रकरण में वस्तु के अंशोंकी आकांक्षारूप दृढ विशेष ज्ञान को ईहापना सूचित किया है । उस दृढ ईहा ज्ञानसे अधिक दृढ अवाय ज्ञान है । और अवायज्ञानसे भी बहुत अधिक दृढ धारणा ज्ञान है । स्मृतिके विशेषरूप से कारण हो रहे धारणाज्ञानको दृढतमपनेकी प्रतिज्ञा है । हम जैनों के यहां भी मोहनीय कर्मके उदयसे आत्मा के चारित्र गुणकी विभाव पर्याय को इच्छा माना है । और आत्मा के चैतन्यगुणका परिणाम ज्ञान है । अतः इच्छासे ज्ञान न्यारा है । किन्तु पूर्व समयवर्तिनी आकांक्षाका विकल्प करता हुआ ईहा ज्ञान उपजता है । अतः उसको आकांक्षापनसे व्यवहार कर देते हैं । जैसे कि क्षपकश्रेणीमें मोक्षकी इच्छा नहीं रहते हुये भी पूर्व इच्छा अनुसार कर्मोका क्षय I चाहने की अपेक्षासे मुमुक्षुपना कह दिया जाता है। चौथा धारणाज्ञान तो संस्काररूप है । ज्ञानमें विशिष्ट क्षयोपशम अनुसार अतिशयोंका उत्पन्न हो जाना ही ज्ञानस्वरूप संस्कार है । इससे न्यारा कोई भावना नामका संस्कार हमें अभीष्ट नहीं है । यदि इस प्रकरण में संस्कारको अज्ञान स्वरूप माना जायगा, तब तो वह संस्कार स्मरणज्ञानका उपादान कि रूप, रस आदिक गुण ज्ञानके उपादान कारण नहीं हैं, किन्तु ज्ञानकी वह उपादानता प्राप्त है । अतः वह संस्कार धारणा नामक ज्ञान ही पडता है । ज्ञानभिन्न कोई गुण भावना नामका संस्कार नहीं सिद्ध हो पाता है। इसका विवरण प्रमेयकमलमार्तण्ड में किया गया है ।
कारण न हो सकेगा। जैसे संस्काररूप धारणाको स्मृति
सुखादिना न चात्रास्ति व्यभिचारः कथंचन । तस्य ज्ञानात्मकत्वेन स्वसंवेदनसिद्धितः ॥ २४ ॥ सर्वेषां जीवभावानां जीवात्मत्वार्पणान्नयात् । संवेदनात्मतासिद्धेर्नापसिद्धान्तसंभवः ॥ २५ ॥
यहां कोई दोष देता है कि यदि जैन लोग ज्ञानभिन्न किसी भी गुणको ज्ञानका उपादान कारण न मानेंगे तो सुख, दुःख, आदि परिणामोंकरके व्यभिचार होता है । अर्थात् — सुख, दुःख आदिक भी ज्ञानके उपादान कारण बन रहे प्रतीत हो रहे हैं । अब आचार्य कहते हैं कि हमारे आदिकोंकी ज्ञानस्वरूपपनेकर के इच्छा, भावना आदि रूप सभी
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यहां यह व्यभिचार कैसे भी स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष द्वारा सिद्धि हो
नहीं आता है । क्योंकि उन सुख रही है । चेतन आत्माके सुख,
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