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स्वार्थो वार्तिके
तन्न साध्वक्षजस्यार्थभेदज्ञानस्य तत्त्वतः । स्पष्टस्यानुभवाद्बाधा विनिर्मुक्तस्य सर्वदा ॥ ७ ॥
तिस प्रकरणमें ब्रह्माद्वैतवादीका कहना है कि जो शुद्ध सत्तामात्र वस्तुको ग्रहण करता है, वह ज्ञान ही पारमार्थिक है । अवान्तर भेदवाली सत्ताको जाननेवाला भेदज्ञान तो यथार्थ नहीं है । कहीं भी इन्द्रिय, अनिन्द्रियसे उत्पन्न हुआ दो प्रकारका ज्ञान या भेद, अभेद, भेदाभेदके अनुसार सामानाधिकरणपना व्यधिकरणपना बनाकर तीन प्रकार के कल्पित किये गये ज्ञान वे सब एक ही हैं, न्यारे न्यारे नहीं हैं | चिदाकार, शुद्ध, चिन्मात्रकी विधिको निरूपनेवाला एक ही ज्ञान वास्तविक है । क्योंकि सर्वत्र प्रतिभासमात्र प्रकाश रहा है। प्रत्यक्ष परोक्ष, अथवा अत्यन्तपरोक्ष, मिलाकर ये दो तीन ज्ञान नहीं हो सकते हैं। देशप्रत्यक्ष सकलप्रत्यक्ष और परोक्ष भेद करना भी ठीक नहीं पडता है । अब आचार्य कहते हैं कि वह ब्रह्म अद्वैतवादियोंका कहना तो अच्छा नहीं है । क्योंकि अर्थोके इन्द्रियोंसे उत्पन्न हो रहे भेदज्ञानकी यथार्थरूपसे प्रतीति हो रही है । प्रत्युत केवल अभेदको ही ग्रहण करनेवाले चिन्मात्रका अनुभव नहीं हो रहा है । किन्तु विशेष वस्तुओंको ग्रहण करनेवाले और बाधाओंसे विशेषतया सब ओरसे रहित हो रहे विशदस्वरूप भेद ज्ञानका सदा अनुभव हो रहा है ।
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प्रतिभासमात्रस्य परमब्रह्मणोपि हि सत्यत्वं सर्वदा बाधविनिर्मुक्तत्वमिष्टमन्यथा तदव्यवस्थानात् तच्चार्थभेदज्ञानस्यापि स्पष्टस्यानुभूयते प्रतिनियतकालसंवेदनेन । कथमस्मदादेस्तत्र सर्वदा बाधरहितत्वं सिध्येदिति चेत् प्रतिभासमात्रे कथं । सकृदपि बाधानुपलंभनात्सर्वदा बाधासंभवनानुपपत्तेरिति चेत् भेदप्रतिभासेपि तत एव ।
ब्रह्माद्वैतवादियोंके यहां माने गये केवल प्रतिभासरूप परमब्रह्मका भी तो सत्यपना सदा बाधाओंसे विरहितपना ही उन अद्वैतवादियोंको इष्ट करना पडेगा । अन्यथा यानी निर्बाधस्वरूप सत्य हुये विना उस प्रतिभासस्वरूप परमब्रह्मकी व्यवस्था नहीं हो सकेगी । किन्तु वह सत्यपनका प्राण बाधारहितपना तो पदार्थोंके स्पष्ट हो रहे भेदज्ञानके भी अनुभूत हो रहे हैं। प्रत्येक ज्ञानके लिये नियत हो रहे कालमें उत्पन्न हुये विशेषज्ञानों करके घट पट आदिकोंके विशेषज्ञानोंका स्पष्ट अनुभव हो रहा है। इन सत्यज्ञानोंमें कभी बाधा नहीं आती है। यहां अद्वैतवादी पूछता है कि उन भेदज्ञानोंमें सदा बाधारहितपना है, यह हम लोगोंके द्वारा कैसे जाना जा सकता है ? इन भेदज्ञानोंमें कभी बाधाऐं न हुयीं, न हैं, और न होंगी, इस बातको अल्पज्ञ जीव जान नहीं सकता है । इस प्रकार अद्वैतवादियोंके पूछनेपर तो हम स्याद्वादी कहते हैं कि तुम्हारे शुद्ध प्रतिभासमात्र या उसके ज्ञानमें सदा बाधारहितपना कैसे तुम अत्यल्पचों ( एकझों) के द्वारा जाना जा सकेगा ? बताओ । यदि इसका उत्तर अद्वैतवादी यों कहें कि शुद्ध चिन्मात्रमें एकबार