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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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यहां अधिकार प्राप्त हो रहे मतिज्ञानका सूत्रोक्त अवग्रह आदिक के साथ समान अधिकरणपना तो यों कर लेना कि वह मतिज्ञान ही अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा स्वरूप है । पहिलेके " तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् " इस सूत्र के तत् शद्वका सम्बन्ध हो जानेसे यहां भी तत् यानी वह मतिज्ञान अवग्रह आदि भेदस्वरूप है । इस प्रकार उद्देश्य विधेय दल बनाकर अवग्रह आदिक के साथ सामानाधिकरण्य बना लेना युक्तिपूर्ण साध लिया जाता है । उद्देश्यदल में एवकार लगाना उचित है ।
तर्दिद्रियानिंद्रियनिमित्तमित्यत्र पूर्वसूत्रे यत्तद्ग्रहणं तस्येह संबंधात्सामानाधिकरण्यं युक्तं तदेवावग्रहादय इति । भावतद्वतोर्भेदात्तस्यावग्रहादयोभिहितलक्षणा इति वैयधिकरण्यमेवेति नाशंकनीयं तयोः कथंचिदभेदात्सामा नाधिकरण्यघटनात् । भेदैकति तदनुपपत्तेः सह्यविंध्यवदित्युक्तप्रायम् ।
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“ तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् " ऐसे इस पहिलेके सूत्रमें तत् शद्वका जो कण्ठोक्त उपादान किया है, उस तत्राद्वका इस " अवप्रदेइावायधारणाः " सूत्रमें अनुवृत्ति कर सम्बन्ध कर देनेसे वह मतिज्ञान ही अवग्रह आदि स्वरूप है । इस प्रकार समान अधिकरणपना बना लेना युक्त हो जाता है । यदि यहां कोई यों शंका करे कि भाव यानी परिणाम और उस भावसे सहित यानी परिणामी पदार्थोंका भेद हो जानेके कारण उस मतिज्ञानरूप परिणामीके अंवग्रह आदिक परिणाम हैं, जिनके कि लक्षण कहे जा चुके हैं। इस प्रकार प्रकरण अनुसार अर्थके वशसे तत्शद्वकी प्रथमा विभक्तिका षष्ठीविभक्तिरूप विपरिणाम कर षष्ठ्यन्त मतिज्ञानका प्रथमान्त अवग्रह आदिके साथ व्यधिकरणपना ही सुबोध कारक दीखता है। गेहूं चून है, इस समानाधिकरणकी अपेक्षा गेहूं का चून है, यह व्यधिकरण समुचित प्रतीत होता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो शंका नहीं करनी चाहिये। क्योंकि उन परिणामी और परिणाम हो रहे मतिज्ञान और अवग्रह आदिकका कथंचित् अभेद हो जानेसे समान अधिकरणपना घटित हो जाता है । सर्वथा भेदका एकान्त 1 माननेपर तो भाव और भाववान्में वह समान अधिकरणपना नहीं बन पाता है । जैसे कि सर्वथा भिन्न हो रहे सह्य पर्वत और विंध्यपर्वतका सा ही विंध्य है, अथवा विंध्य ही सहा है, यह सामानाधिकरण्य नहीं बनता है। इस बातको हम पहिले कई बार कह चुके हैं। लोकमें भी देवदत्त स्वामीके गेहूं है, इस प्रकार भेदमें वैयधिकरण्य करना ठीक पडता है । किन्तु कथंचित् अभेद हो जानेपर गेहूं पिसकर घून बन गया है, यह समानाधिकरणपना सत्य जचता है । गहरा विचार करो ।
तत्र यद्वस्तुमात्रस्य ग्रहणं पारमार्थिकम् ।
द्विधा त्रेधा कचिज्ज्ञानं तदित्येकं न चापरम् ॥ ६ ॥