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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु, श्रोत्र, ये छह इन्द्रियां तथा जानने योग्य पुद्गलपर्याय आत्मीय पर्याय, रूप, रूपवान् , सुख, दुःख, जीव, आदिक अर्थोकी योग यानी दूर, नातिदूर, अव्यवहित, संयुक्त, बद्ध, आदि स्वरूपकरके यथायोग्य देशमें अवस्थिति हो जानेपर उससे वस्तुको सामान्यमहासत्ताका आलोचन करना स्वरूप दर्शन उपयोग उत्पन्न होता है। पीछे अवान्तर सत्तावाली वस्तुके विशेषभेदको ग्रहण करनेवाला जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अवग्रह नामका मतिज्ञान है। सम्पूर्ण वस्तुओंमें न्यारी न्यारी होकर रहनेवाली और उपचारसे एकत्रित कर ली गयी महासत्ताका निर्विकल्पक दर्शन उपयोग द्वारा आलोचन हो जाता है । तदनन्तर स्वकीय अवान्तरसत्तावाली विशेषवस्तुका सविकल्पकज्ञान अवग्रह कहा जाता है। जैसे कि " यह मनुष्य है " ॥
तद्गृहीतार्थसामान्ये यद्विशेषस्य कांक्षणम् ।
निश्चयाभिमुखं सेहा संशीतेभिनलक्षणा ॥३॥ . उस अक्ग्रहसे ग्रहण किये जा चुके विशेष जातिवाले सामान्यअर्थमें जो विशेष अंशोंके निश्चय करनेके लिये अभिमुख हो रहा आकांक्षारूप ज्ञान है, उसको ईहा कहते हैं । वह ईहा शान संशय आत्मकज्ञानसे मिनलक्षणवाला है। संशयमें तो विरुद्ध दो तीन आदि कोटियोंका स्पर्श होता रहता है। किन्तु ईहाज्ञानमें एक कोटिका ही निश्चय करनेके लिये उन्मुखता पायी जाती है । जगत्के प्रायः सभी होनेवाले कार्य पहिले अपने कारणोंद्वारा उन्मुख धर लिये जाते है, तब कहीं पश्चात् बनाये जाते हैं । मारणान्तिक समुद्घात करनेवाला जीव मरनेके अन्तर्मुहूर्त पहिले उस स्थानका स्पर्शकर पीछे वहां जाकर जन्म लेता है । अतः अवायज्ञानके पूर्वमें वस्तु खमावके अनुसार भवितव्यतारूप आकांक्षाज्ञान ईहा उत्पन्न हो जाती है। जैसे कि " यह मनुष्य दक्षिणदेशवासी होना चाहिये।
तस्यैव निर्णयोऽवायः स्मृतिहेतुः सा धारणा। इति पूर्वोदितं सर्वं मतिज्ञानं चतुर्विधम् ॥ ४ ॥
आकांक्षाज्ञान द्वारा जाने गये उस ही अर्थका दृढ निर्णय कर लेना अवायज्ञान है । यदि वही निर्णय पीछे कालान्तरतक स्मरण बनाये रखनेका हेतु होता हुआ दृढतर संस्काररूप बन जाय तो वह धारणामतिज्ञान समझा जाता है । इस सम्पूर्ण विषयको हम पहिले कह चुके हैं। इस प्रकार मतिज्ञान चार प्रकारके सिद्ध कर दिये गये हैं।
समानाधिकरण्यं तु तदेवावग्रहादयः । तदिति प्राक्सूत्रतच्छदसंबंधादिह युज्यते ॥ ५॥