SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ४४१ भी हो रही बाधा नहीं दीखती है । इस कारण सदा ही बाधावोंकी संभावना नहीं बन रही है। इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन भी उत्तर देते हैं कि तिस ही कारण यानी एक बार भी बाधाओंकी उपलब्धि नहीं होती है । अतः बाधाओंके असम्भवकी सिद्धि भेदप्रतिभासोंमें भी समझ लेना । इस विषयमें हमारा, तुम्हारा, प्रश्नोत्तर उठाना, देना, एकसा पडेगा। ___ चंद्रद्वयादिवेदने भेदप्रतिभासस्य बाधोपळभादन्यत्रापि बाधसंभवनान्न भेदपतिभासे सदा बाधवैधुर्य सिध्यतीति चेत्तर्हि वकुलतिलकादिवेदने दूरादभेदप्रतिभासस्य बाधसहितस्योपलंभनादभेदप्रतिभासेपि सदा बाधशून्यत्वं मासिषत् । तत्रापि प्रतिभासमात्रस्य बाधानुपलंभ इति चेत् चंद्रद्वयादिवेदनेपि विशेषमात्रप्रतिभासे, बाधानुपलंभ एवेत्युपालंभसमाधानानां समानत्वादलमतिनिबंधनेन । ब्रह्मअद्वैतवादी कहते हैं कि एक चन्द्रमामें विशेषरूपसे दो चन्द्रमाका ज्ञान हो जाता है। या पैलदार हिलव्वी कांचसे देखनेपर एक घटके अनेक घट दीखते हैं । इत्यादि झूठे ज्ञानोंमें भेदके प्रतिभासोंकी बाधाएं उपस्थित हो रहीं देखी जाती हैं । अतः अन्य घट, पट, आदिके भेदप्रतिमासोंमें भी बाधाओंकी सम्भावना है । एक चावलको देख कर कसेंडीके पके, अधपके, सभी चावलोंका अनुमान लगा लिया जाता है । अतः जैनोंके भेदप्रतिभासमें सदा बाधारहितपना नहीं सिद्ध होता है । ऐसा कहनेपर तो हम जैन भी कह देंगे कि मौलश्री, तिलक, आम्र, चम्पा, अशोक आदि वृक्षोंके ज्ञानमें दूरसे हुये अभेदप्रतिमासके बाधासहितपनकी उपलब्धि हो रही है । अतः तुम्हारे प्रतिभासमात्ररूप अभेद प्रतिभासमें (के ) भी सर्वदा बाधारहितपना नहीं सिद्ध होगा । मला विचारनेकी बात है कि भूठे विशेषज्ञानोंका अपराध सच्चे विशेष ज्ञानोंपर क्यों लादा जाता है ? अद्वैतवादियोंके यहां गधे घोडे, सज्जन दुर्जन, मूर्ख पण्डित, चोर साहूकार, सब एक कर दिये गये हैं । ऐसी दशामें अन्योंसे न्यारे अपने अद्वैत मतकी वे सिद्धि नहीं कर सकेंगे। यदि वेदान्ती यों कहें कि दूरसे बगीचेमें वकुल, तिलक आदि अनेक वृक्ष समुदित होकर एक दीख रहे हैं। किन्तु निकट जानेपर भिन्न भिन्न होकर विशद दीख जाते हैं। फिर भी वहां सामान्य प्रतिभास होनेकी कोई बाधा नहीं दीख रही है। चाहे भिन्न दीखें या अभिन्न दीखें सामान्यप्रतिभास होनेमें तो कोई बाधा नहीं है । ऐसा स्थूलबुद्धिका उत्तर देनेपर तो हम भी कह देंगे कि दो चन्द्रमा आदिके ज्ञानोंमें भी केवल विशेष अंश यानी विशेष्यदलके प्रतिभासनेमें तो कोई बाधा नहीं दीखती ही है। केवल विशेषणभूत संख्याका अतिक्रमण हो गया है । इस प्रकार हमारे तुम्हारे दोनोंके यहां उलाहने और समाधान समान हैं। इस विषयमें आपको अधिक आग्रह करनेसे कुछ हाथ नहीं लगेगा। अतः भेदप्रतिभास या अभेद प्रतिमासके प्रकरणको अधिक बढाना नहीं चाहिये । बात यह है कि सभी ज्ञान भेदात्मक अभेदात्मक वस्तुओंके हुये भले प्रकार स्पष्ट अनुभूत हो रहे हैं । एककी काणी आंख हो जानेसे जगत्भरको काणा मत कह दो । 56
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy