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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ૪૨ ૨ ओंमेंसे एक एक न्यारी परमाणुको यदि ज्ञानका आलम्बन कारण मानेंगे तो " वे न्यारे न्यारे परमाणु बुद्धिके विषय नहीं हैं " इस ग्रन्थसे स्वयं बौद्धों को विरोध ठन जायगा । अतः स्वाकारको अर्पण करने के लिये समर्थ रहना यह विशेषण लगाना व्यर्थ ही रहा । तर्हि योधिपतिसमनंतरालंबनत्वेनाजनको निमित्तमात्रत्वेन जनकः स्वाकारार्पणक्षमः स संवेदनस्य ग्राह्योस्त्वव्यभिचारादिति चेन्न, तस्यासंभवात् । न हि संवेदनस्याधिपत्यादिव्यतिरिक्तोन्यः प्रत्ययोस्ति । तत्सामान्यमस्तीति चेत् न, तस्यावस्तुत्वेनोपगमाज्जनकत्वविरोधात् । वस्तुत्वे तस्य ततोर्थीतरत्वे तदेव ग्राह्यं स्यान पुनरर्थो नीलादिर्हेतुत्वसामान्यजनकनीलाद्यर्थो ग्राह्यः संवेदनस्येति ब्रुवाणः कथं जनक एव ग्राह्य इति व्यवस्थापयेत् । ततो न पूर्वकालोर्थः संविदो ग्राह्यः । किं तर्हि समानसमय एवेति प्रतिपत्तव्यं । - बौद्ध कहते हैं कि तब तो यों कह देना अच्छा है कि जो पदार्थ ज्ञानके अधिपतिपनेकर के और अव्यवहित पूर्ववर्तीपनेकरके तथा विषयभूत आलम्बनपनकरके जो ज्ञानका जनक नहीं है, किन्तु ज्ञानका केवल निमित्तकारण बन जानेसे जनक हो रहा है और अपने आकारको ज्ञानके प्रति अर्पण करनेके लिये शक्त ( तैयार ) है, वह पदार्थ संवेदनका ग्राह्य बन जाओ । ऐसा नियम करने में कोई व्यभिचार दोष नहीं आता है । आचार्य कहते हैं कि यह तो बौद्ध नहीं कहें। क्योंकि उसका असम्भव है । अधिपति या समनन्तर अथवा आलम्बनपनके अतिरिक्त कोई अन्य कारण ( उपाय ) सम्वेदनको उत्पन्न कराने में नहीं सम्भवता है । जो पदार्थ उन तीन रूपोंसे जनक नहीं हैं, वह पदार्थ ज्ञानका कैसे भी उत्पादक नहीं हो सकता है। फिर भी बौद्ध यों कहें कि ज्ञानके अधिपति कारण आत्मा, इन्द्रिय, आदिक हैं । और ज्ञानका समनन्तर कारण तो अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती ज्ञानपर्याय है, जो कि उपादान कारण मानी गयी हैं । तथा ज्ञानका आलम्बनकारण तो ज्ञेयविषय है । इन तीनके अतिरिक्त भी उन तीनोंमें रहनेवाला एक सामान्य पदार्थ है । वह ज्ञानका जनक बन जायगा । ग्रन्थकार समझाते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि बौद्धोंने सामान्यको अवस्तुरूपसे स्वीकार किया है । जो वस्तुभूत नहीं है उसको उत्पत्ति रूप क्रियाका जनकपना विरुद्ध है । जैसे कि कच्छपके रोमोंसे ऊनी वस्त्रोंको नहीं बुना जा सकत है । यदि उस सामान्यको वस्तुभूत मानते हुये उन तीन कारणोंसे मिन्न मानोगे तब तो कारणरूप वह सामान्य ही ज्ञानके द्वारा ग्रहण करने योग्य हुआ । फिर नील आदि स्वलक्षणरूप अर्थ तो ज्ञानका ग्राह्य नहीं हो सका । इसपर भी बौद्ध यदि यों कहता फिरे कि ज्ञानका जनक सामान्य है, और हेतुत्वरूप सामान्य का जनक नीलादिक अर्थ है, जो कि सम्वेदनका ग्राह्य हो जाता है । पितासे उत्पन्न हुआ पुत्र पितामहकी सेवा कर देता है । इस प्रकार कह रहा बौद्ध ज्ञानका जनक पदार्थ ही ग्राह्य होता है, इस बातकी कैसे व्यवस्था करा सकेगा ? अर्थात् - ज्ञानका जनक सामान्य हुआ और ज्ञानका जनक ही पदार्थग्राह्य नहीं बन सका । तिस कारण पूर्वकालमें वर्त रहा अर्थ
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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