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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
नन्वालंबनत्वेन यो जनकः स्वाकारार्पणक्षमश्च स ग्राह्यो ज्ञानस्य न पुन: समनंत रत्वेनाधिपतित्वेन वा यतो व्यभिचार इति चेदितराश्रयप्रसंगात् । सत्यालंबनत्वेन जनकत्वेऽर्थस्य ज्ञानालंबनत्वं सति च तस्मिन्नालंबनत्वेन जनकत्वमिति ।
___बौद्धोंका स्वमतस्थापनके लिये अवधारण है कि जो आलम्बन ( विषय ) पने करके ज्ञानका जनक है, और अपने आकारको अर्पण करनेमें दक्ष है, वह पदार्थ ज्ञानका ग्राह्य होता है । किन्तु फिर अव्यवहितपूर्वपने करके यानी ज्ञानके अव्यवहित पूर्वक्षणमें वर्त रहे स्वरूपसे किसी पदार्थको ज्ञानकी ग्राह्यता प्राप्त नहीं है । तथा ज्ञानके अधिपतिपनेकरके भी प्राप्लता नहीं है। यानी जो ज्ञानका सर्वतंत्र स्वतंत्र अधिष्ठाता है, वह भी ज्ञानका विषय नहीं है । जिससे कि समान अर्थ या चक्षु आदिकसे व्यभिचार हो जाय । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो अन्योन्याश्रय दोष होनेका प्रसंग आता है। आलम्बनपने करके अर्थका जनकपना सिद्ध हो चुकनेपर तो अर्थको ज्ञानका आलम्बनपना बनें और अर्थको ज्ञानका आलम्बनपना बन चुकनेपर आलम्बनपनेकरके जनकपना सिद्ध होय इस प्रकार अन्योन्याश्रय हुआ।
. स्वाकारार्पणक्षमत्वविशेषणं चैवमनर्थकं स्यादालम्बनत्वेन जनकस्य ग्राह्यत्वाध्यभिचारात् । परमाणुना व्यभिचार इत्यपि न श्रेयः परमाणोरेकस्यालंघनत्वेन ज्ञानजनकस्वासंभवात् । संचितालंबनाः पंचविज्ञानकाया इति वचनात् । प्रत्येकं परमाणनामालंबनत्वेन ते बुद्धिगोचरा इति ग्रन्थविरोधात ।
- दूसरी बात यह है कि इस प्रकार ज्ञान के विषयभूत अर्थको ही यदि ज्ञानका जनकपना माना जायगा तब तो अपने आकार (प्रतिबिम्ब ) को ज्ञानके लिये अर्पण करनेमें सन्नद्ध ( तयार ) रहनापन यह विशेषण लगाना व्यर्थ पडेगा । क्योंकि ज्ञानके आलम्बन होकर जो पदार्थ जनक होंगे वे प्राह्यपनका व्यभिचार नहीं करेंगे । अर्थात् -ज्ञानका आलम्बन होता हुआ जो जनक होगा वह ज्ञानद्वारा ग्राह्य अवश्य हो जावेगा । फिर जानकी विषयताका नियम करनेके लिये अपने आकारको ज्ञानके लिये समर्पण करनेकी शक्ति रखना यह ग्राह्य विषयका विशेषण क्यों व्यर्थ लगाया जाय ? यदि बौद्ध यों कहें कि विशेषण लगाना व्यर्थ नहीं है । अन्यथा परमाणुसे व्यभिचार हो जायगा।देखिये, हम बौद्धोंके यहां क्षणिक, असाधारण, परमाणुऐं वस्तुभूत मानी गयीं हैं, वे ज्ञानकी उत्पत्तिमें आलम्बन होती हुयीं जनक हैं। किन्तु ज्ञानके द्वारा विषय नहीं हो रही हैं। कारण कि वे परमाणुएँ ज्ञानके लिये अपने आकारोंका समर्पण नहीं कर सकती हैं । अतः स्वाकारार्पणक्षम विशेषण देना सफल है । ग्रन्यकार कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कथन भी श्रेष्ठ नहीं है । क्योंकि आलम्बनपने करके ज्ञानका जनकपना एक परमाणुके असम्भव है। अनेक परमाणु एकत्रित होकर जब रूप स्कन्ध, वेदनास्कन्ध, विज्ञानस्कन्व, संज्ञास्कन्ध, संस्कारस्कन्ध, ये विज्ञानके पांच काय बन जाते हैं, तब ज्ञानके आलम्बन होते हैं, इस प्रकार बौद्ध ग्रन्थोंमें कहा गया है । तथा बौद्ध अनेक परमाणु