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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
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और धर्मी पदार्थोंका
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और ज्ञापकपक्षका भी परस्पर आश्रय दोष लागू नहीं होता है। केवल व्यवहार परस्परकी अपेक्षासे कर लिया जाता है । एक नदीके दो किनारे अपने अपने कारणोंसे स्वयं सिद्ध हो चुके हैं । फिर भी इस पारवाले मनुष्य परभागको परलीपार कहते हैं । और परलीपारवाले इस पारको परलीपार कहते हैं । व्यवहारमें इस प्रकारका अन्योन्याश्रय दोष नहीं माना गया है। किन्तु गुण ही है । उसको गुरुवर्य और भविष्य चौवीसीमें तीर्थकर होनेवाले श्री समन्तभद्र आचार्य भगवान् ने स्वनिर्मित देवागम स्तोत्रमें कहा है कि धर्म और धर्मियोंका अविनाभाव तो परस्परकी अपेक्षाकरके ही सिद्ध हो रहा है । किन्तु उनका स्वरूपलाभ तो अन्योन्यापेक्ष नहीं है । क्योंकि धर्म यह डील तो पहिले से ही स्वकीय न्यारे न्यारे कारणों द्वारा बन चुका है। जैसे कि कारक के अवयव कर्त्ता, कर्म, करण, आदिक पहिलेसे ही निष्पन्न हैं। फिर भी किसी विवक्षित क्रियाकी अपेक्षासे उनमें कर्त्तापन, कर्मपनका व्यवहार साथ दिया जाता है । देवदत्त कर्त्ता और भात कर्म तथा हाथ करण ये पहिले से ही स्वरूपलाभ कर चुके हैं । फिर भी खानेरूप क्रियाकी अपेक्षासे देववदत्तमें कर्तापन भात में कर्मपन और हाथमें करणपनका व्यवहार एक दूसरेकी अपेक्षासे प्रसिद्ध हो जाता है । अन्नके लिये ( सम्प्रदान ) ग्रामसे ( अपादान ) नगर में ( अधिकरण ) देवदत्त आता है। ऐसे परस्पर अपेक्षा रखनेवाले व्यवहार हो रहे हैं । कर्त्तापन कर्मके निश्चय हो चुकनेपर व्यवहृत होता है। 1 और कर्मपनेका व्यवहार भी कर्त्ता की प्रतिपत्ति हो चुकनेपर जानने योग्य है । इसी प्रकार ज्ञापक के अवयव प्रमाण, प्रमेयोंका स्वरूप तो स्वतःसिद्ध है । हां, ज्ञाप्यज्ञापक व्यवहार ही परस्परकी अपेक्षा रखनेवाला है । ऐसे ही वाच्य अर्थ और वाचक शब्दका स्वरूपलाभ अपने अपने कारणों द्वारा पूर्व में ही हो चुका है । केवल ऐसा व्यवहार अन्योन्याश्रित है । गुरुशिष्य भावमें भी यही मार्ग आलम्बनीय है । कुलीन गृहिणीका स्वामी उसका पति है । साथमें सच्चरित्र स्वामीकी पत्नी वह गृहिणी है । यह पतिपत्नी सम्बन्धका व्यवहार परस्परापेक्ष है । उन दोनोंका शरीर तो पूर्वसे ही बन चुका था। पति शद्वका ही स्त्रीलिङ्गकी विवक्षा करनेपर पत्नी बन जाता है । पतिकी स्त्रीका नाम ही पत्नी नहीं है । किन्तु पतिकी स्वामिनी पत्नी कही जाती है । स्त्रीस्वरूप पति ही पत्नी है । यहांतक पूर्व महर्षियोंके आगमका प्रमाण दिया है । तिस कारण सिद्ध होता है कि यदि ज्ञानका विषयभूत आलम्बन अर्थ माना जायगा तो वह अर्थ अपने ज्ञानका उत्पादक नहीं हो सकता है । क्योंकि ज्ञानका आलम्बन तो ज्ञानके समानकालमें रहना चाहिये और कारण पूर्वक्षण में रहना चाहिये क्षणिकवादियों के यहां कार्यक्षण में कारण नहीं आ सकता है । तथा अर्थको यदि ज्ञानका जनक कहोगे तो वह अर्थ ज्ञानका आलम्बन नहीं हो सकेगा। क्योंकि विरोध है । इन्द्रिय, अदृष्ट, आदिक पदार्थ घटान के कारण हैं । किन्तु घटज्ञानके विषय नहीं हैं । और चिरभूत कालके पदार्थ स्मरण में आलम्बन हैं, किन्तु स्मरण के अव्यवहित पूर्वसमयवर्त्ती होकर उत्पादक कारण नहीं हैं ।
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