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तत्वार्थचिन्तामाणः
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घटित होती है । अतः वह प्रकाशक भी उस प्रकाश्यका जनक हो जाओ। भावार्थ-प्रकाशक दीपकका कारण यदि प्रकाश्य अर्थ माना जाता है, तो प्रकाश्य अर्थका भी कारण प्रकाशक दीपक हो जाओ । बडे बडे धनवान् पुरुष सगर्व होकर निर्धनोंके सहायक हो रहे हैं । इसके उत्तरमें यों ही क्यों न कह दिया जावे कि छोटे छोटे निर्धन पुरुषोंके रक्तसमान धनको छल, छिद्रोंसे हडपकर या व्यापारकी तेजी मन्दी द्वारा निर्धनोंके प्राण समान धनको चूसकर ही वे. धनी पुरुष अपनी ऐंठमें इठ रहे हैं । न्यायपूर्वक पावनद्रव्य उत्पन्न करना या पुण्योदयसे परिशुद्ध द्रव्यकी प्राप्ति हो जाना सभी धनवानोंके पुरुषार्थ या भाग्यमें नहीं बदा है। फिर भी अनेक धनिकोंकी कमाईमें दयनीय दीन, विधवा और ऋणी किसानोंकी कमाईका परम्परासे सहयोग है। जो समुद्र दिनरात अपने बहु जलपनेकी तरङ्गरूप वाहें उछालकर गम्भीर शब्दद्वारा प्रशंसा ( शेखी ) को पुकारता रहता है, वह समुद्र भी अनेक जलबिंदुओंका समुदाय है। प्रकरणमें प्रकाश्य और प्रकाशकके कार्यकारणभावकी विनिगमना नहीं रही और तैसा होनेसे अन्योन्याश्रय दोष आ जाता है। प्रकाश्यके न होनेपर प्रकाशक नहीं बनता है और उस प्रकाशकके नहीं होनेपर अर्थका प्रकाश्यपना असिद्ध हो जाता है। केताओंके विना विक्रेताओंकी गति नहीं और विक्रेताओंके विना क्रेताओंका निर्वाह नहीं होता है।
यदि पुनः खकारणकलापादुत्पन्नयोः प्रदीपघटयोः स्वरूपतोभ्युपगमादन्योन्यापेक्षा प्रकाशकत्वप्रकाश्यत्वधर्मी परस्पराविनाभाविनी भविष्येते तथान्योन्याश्रयणात्तदभावाज्ज्ञानार्थयोरपि स्वसामग्रीबलादुपजातयोः स्वरूपेण परस्परापेक्षया ग्राह्यग्राहकभावधर्मव्यवस्था स्थीयतां तथा प्रतीतेरविशेषात् । तदुक्तं । " धर्मधर्म्यविनाभावः सिध्यत्यन्योन्यवीक्षया । न स्वरूपं स्वतो ह्येतत्कारकज्ञापकादिति " ततो ज्ञानस्यालंबनं चेदर्थो न जनका जनकश्चेनालंबनं विरोधात् ।
___ यदि फिर आप बौद्ध यों कहें कि प्रदीप और घट अपने अपने कारणोंके समुदायसे स्वरूप करके उत्पन्न हो रहे स्वीकार किये हैं, किंतु प्रदीपमें प्रकाशपना और घटमें प्रकाश्यपना धर्म तो परस्परमें अविनाभाव रखते हुए इतर इतरकी अपेक्षावाले हो जायेंगे, तिस प्रकार अन्योन्याश्रय होने पर भी उस अन्योन्याश्रय दोषका अभाव माना गया है, उसी प्रकार अपनी अपनी सामग्रीके बलके उत्पन्न हो चुके ज्ञान और ज्ञेव अर्थोका भी स्वरूपकरके परस्परकी अपेक्षाद्वारा प्राह्य ग्राहकपन धर्मकी व्यवस्थाका श्रद्धान कर लेना चाहिये, क्योंकि तिस प्रकार प्रतीति होनेका कोई अन्तर नहीं है। अर्थात् पिता और पुत्रके शरीरोंकी उत्पत्ति परस्परापेक्ष नहीं है। हां, पितापन और पुत्रपन यह व्यवहार ही एक दूसरे की अपेक्षा रखनेवाला है । इसी प्रकार दीप, घट, ज्ञान, ज्ञेय, इन पदार्थोकी उत्पत्ति तो स्वकीय नियत कारणोंसे ही होती है । किन्तु आपेक्षिक धर्म एक दूसरेकी सहायतासे व्यवहृत हो जाते हैं । अतः कारकपक्षका अन्योन्याश्रय दोष तो यहां नहीं आता है।