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- तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
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करके आलोक कारण होकर प्रतीत हो रहा है अर्थात् हम सारिखे कुछ जीवोंकी चक्षु इन्द्रियां रूपके ज्ञानको तब उत्पन्न करती हैं, जब कि उन चक्षुओंके आलोकद्वारा बल प्राप्त हो जाय । कुत्ताके भोंकनेमें या कुत्ताद्वारा मनुष्यको काटलेनेमें वह कुत्ता ही कारण है। फिर कुत्ताके प्रेमियोंकी लैलैकर प्रेरित करनेसे कुत्तेको बल प्राप्त हो जाता है । उसी प्रकार कतिपय दिवाचरोंकी आंखोंको बलका आधायक आलोक जाना जा रहा है। अन्यथा यानी अस्मदादिकोंके रूपज्ञानकी उत्पत्तिमें बलाधायक रूपकरके यदि आलोकको कारण नहीं माना जायगा तो चाक्षुषज्ञानका उस आलोकके साथ अन्वय, व्यतिरेकका यह अनुबिधान करना नहीं बन सकेगा कि आलोकके होनेपर चक्षुद्वारा हम दिवाचरोंको रूपज्ञान होता है । और आलोकके नहीं होनेपर मन्दतेजोधारी चक्षुसे रूपज्ञान नहीं हो पाता है । अतः रूपज्ञानका कारण बलाधायकपनेसे आलोक हो . सकता है। अर्थात्-रूपज्ञानके मुख्यकारण चक्षुओंमेंसे कुछ चक्षुओंकी सहायता कर देता है । उस आलोकके समान ही यदि अर्थको भी आद्यसमयके ज्ञानका जनक कहोगे तब तो कोई विरोध नहीं है । हां, उस अर्थको ज्ञानका आलम्बनपने करके जनकपना माननेपर तो व्याघात दोष आता है । अर्थात्-ज्ञानका विषयभूत अर्थ अपना ज्ञान उत्पन्न करानेमें प्रधान होकर अवलम्ब नहीं दे रहा है । चक्षुको जिस प्रासाद, रेलगाडी, आदि पदार्थोकी ओर उन्मुख उपयुक्त कर देते हैं, वे पदार्थ चक्षुसे दीख जाते हैं । किन्तु चाक्षुषप्रत्यक्षकी उत्पत्तिमें वे पदार्थ कारण नहीं हैं । आलम्बनका अर्थ आलम्बनपना, जानने योग्यपना, प्रकाशित होने योग्यपना, कहा जाता है । ऐसा वह आलम्बनपना तो प्रकाशक ज्ञान या प्रदीप, सूर्य, आदिके सम्मनकालमें हो रहे अर्थका देखा जाता है । जैसे कि अपने प्रकाशका आलम्बन कारण प्रदीप है । जो प्रकाशित होने योग्य अर्थ है । वह अपने प्रकाश करनेवाले प्रदीपको उत्पन्न नहीं कराता है। किन्तु अपने बत्ती, तेल, पात्र, गैस, विद्युत् शक्ति, आदि, कारण समुदायसे ही उस दीपककी उत्पत्ति हो जाती है । अतः अर्थ या आलोकको ज्ञानका कारण-कारण भले ही कह दो किन्तु ज्ञानका आलम्बनकारण अर्थ नहीं है । चक्कू या वसूला आदि अस्त्र कतरने योग्य पदार्थ पर उपयुक्त अवश्य हो रहे हैं। किन्तु पत्ता, काठ, आदि पदार्थ उन चक्कू, वसूलाके उत्पादक कारण नहीं है। एक बात यह भी है कि अनेक कार्यों से अत्यल्पकार्योका परम्पराकारण हो जानेसे आलोक या अर्थ यावत् चाक्षुषप्रत्यक्षोंका मुख्यकारण कथमपि नहीं समझा जा सकता है।
प्रकाश्यस्याभावे प्रकाशकस्य प्रकाशकत्वायोगात् स तस्य जनक इति चेत्, प्रकाशकस्याभावे प्रकाश्यस्यापि प्रकाश्यत्वाघटनात् स तस्य जनकोस्तु । तथा चान्योन्याश्रयणं प्रकाश्यानुपपत्तौ प्रकाशकानुपपत्तेस्तदनुत्पत्तौ च प्रकाश्यानुत्पत्तिरिति ।
प्रकाशने योग्य अर्थके नहीं होनेपर प्रकाशककी प्रकाशकताका योग नहीं है । अतः वह अर्थ उस प्रकाशकका उत्पादक कारण माना जाता है । इस प्रकार अन्वय, व्यतिरेक, बनाकर कहनेपर तो हम जैन भी कह देंगे कि प्रकाशकके न होनेपर प्रकाश्य अर्थकी भी प्रकाश्यता नहीं