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तस्वार्थ लोक वार्तिके
अत्र नैयायिकोंको सहायक बनाते हुये बल पाकर बौद्ध कहते हैं कि इस प्रकार अर्थजन्यपनके खण्डनार्थ उठाये गये झपट्टेमें तो चाक्षुषप्रत्यक्षका आलोकसे जन्यपना भी नहीं रक्षित रह सकेगा । नैयायिकों और वैशेषिकोंने अन्यथानुपपत्तिसे ज्ञानको उस आलोकसे जन्य अभीष्ट किया है। यानी ज्ञेय अर्थके साथ तैजस आलोकका सम्बन्ध हुये बिना चक्षुइन्द्रिय जन्य प्रत्यक्षकी उपपत्ति नहीं बनती है । तथा इस प्रकार ग्रन्थोंमें भी कहा है कि ज्ञानोंके न्यारे दूसरे कारण फिर आलोक, लिङ्ग, शद्व, आदिक हैं । यदि आलोकके साथ उस ज्ञानका अन्वयव्यतिरेक अनुविधान हो रहा है, अतः उस चाक्षुषप्रत्यक्षका उस आलोकसे जन्यपना मानोगे तत्र तो अर्थजन्यपना भी हम आदि जीवोंके सत्यज्ञानोंको हो जाओ । ज्ञानके साथ अन्वयव्यतिरेकके अनुविधानकी अपेक्षा आलोक 1 और अर्थ में कोई अन्तर नहीं है ।
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न चैवं संशयादिज्ञानमंतरेण विरुध्यते तस्य सत्यज्ञानत्वाभावात् । नापि सर्व विद्बोधैरनैतिकत्वमस्मदादिसत्यज्ञानत्वस्य हेतुत्वात् । अस्मदादिविलक्षणानां तु सर्वविदां ज्ञानं चार्थाजन्यं निश्चित्यास्मदादिज्ञानेऽर्थाजन्यत्वशंकायां नक्तंचराणां मार्जारादीनामंजनादिसंस्कृतचक्षुषां वास्मद्विजातीयानामालोका जन्यत्वमुपलभ्यास्मदादीनामपि नार्थवेदन स्यालोकाजन्यत्वं शंकनीयमिति कश्चित् तं प्रत्याह ।
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अभी बौद्ध ही कह रहा है कि इस प्रकार अर्थके विना भी हो रहे संशय, विपर्यय आदि ज्ञान देखे जाते हैं, यह तो विरुद्ध नहीं पडता । क्योंकि उन संशय आदिकों को सत्यज्ञानपन नहीं है । तथा हम बौद्धों के हेतुका सर्वज्ञज्ञानोंकरके भी व्यभिचार दोष नहीं आता है। क्योंकि हम तुम, आदि लौकिक जीवोंके सम्यग्ज्ञानका सत्यज्ञानपना हमने हेतु माना है । जो हम सारिखे व्यवहारीजनों से विलक्षण हैं। उन सर्वज्ञोंका ज्ञान तो अर्थजन्य नहीं है । यदि उन महान् पुरुषोंके ज्ञानोंमें अर्थसे अजन्यपनेका निश्चय कर हम आदि लोगोंके ज्ञानोंमें भी अर्थसे नहीं उत्पन्न हुये पनकी शंका रक्खी जावेगी तत्र तो रातमें यथेच्छ विचरनेवाले बिल्ली, सिंह, उल्लूक, चिमगादर, आदि पशु, पक्षियों या अंजन, मंत्र, पिशाच, आदि कारणोंसे संस्कारयुक्त हो रहे चक्षुओंवाले मनुष्यों जो कि हम लोगों से भिन्न जातिवाले हैं, उन जीवोंके चाक्षुषप्रत्यक्षको आलोकसे अजन्यपना देख कर अस्मत् आदिकोंके भी अर्थप्रत्यक्षको आलोकसे अजन्यपना सम्भव जायगा जो कि कथमपि नहीं शंकित करना चाहिये। क्योंकि वह सर्वज्ञ हम लोगोंसे अतिशययुक्त ज्ञानका धारी है। aisis पैर में ना जडते हुये देख कर मैडकीका उन नालोंके लिये पांव पसारना अनुचित है । इस प्रकार कोई बौद्धवादी कह रहा है । उसके प्रति आचार्य महाराज समाधान वचन कहते हैं ।
आलोकेनापि जन्यत्वे नालंबनतया विदः ।
किं त्विंद्रियबलाधानमात्रत्वेनानुमन्यते ॥ १२ ॥