________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
समयके पदार्थ ही कारण बन सकते हैं। उतने ही अर्थोंको अधिक से अधिक सर्वज्ञ जान सकेगा तथा अर्थके विना भी द्विचन्द्रज्ञान या शुक्तिमें रजतज्ञान हो जाते हैं। वर्तमानमें नहीं उग रहे रोहिणी नक्षत्रकी कृत्तिकोदयहेतुसे अनुमान द्वारा इप्ति हो जाती है । कहांतक कहा जाय, प्रत्यक्ष, अनुमान, आगमद्वारा भूत, भविष्य, दूरवर्त्ती, उन प्रमेयोंकी इप्ति हो जाती है, जो कि उक्त ज्ञानोंमें कैसे भी कारण नहीं बन सके हैं। विशेष जातिके खिच्चरको उत्पन्न कर जैसे अश्वतरी मर जाती है, पुत्र अपनी जननीको नहीं देख पाता है, वैसे ही बौद्धोंका ज्ञान अपनी जननी -वस्तुको नहीं जान सकेगा ।
स्वार्थजन्यमिदं ज्ञानं सत्यज्ञानत्वतोन्यथा । विपर्यासादिवत्तस्य सत्यत्वानुपपत्तिः ॥ १० ॥ इत्यप्यशेषविद्बोधैरनैकांतिकमीरितं ।
४१३
साधनं न ततो ज्ञानमर्थजन्यमिति स्थितम् ॥ ११ ॥
सीपमें हुये चांद के ज्ञानके या चन्द्रद्वयज्ञानके व्यभिचारको हटाते हुये यदि बौद्ध यह दूसरा अनुमान करें कि यह प्रत्यक्षज्ञान ( पक्ष ) अपने विषयभूत आलम्बन अर्थसे अन्य है ( साध्य ), सत्यज्ञानपना होनेसे ( हेतु ), अन्यथा यानी प्रत्यक्षज्ञानको अर्थजन्य न माननेपर विपर्यय, संशय आदि कुज्ञानोंके समान उस प्रत्यक्षका सत्यपना नहीं बन सकेगा। अब आचार्य कहते हैं कि इस दूसरे अनुमानका हेतु भी सर्वज्ञज्ञानोंसे व्यभिचार दोष युक्त हो रहा कह दिया गया समझ लो । अर्थात् — त्रिलोक त्रिकालवर्ती पदार्थोंको जाननेवाले सर्वज्ञके ज्ञान अपने आलम्बन अखिल विषयों से जन्य नहीं होते हुये भी सत्यज्ञान हैं। जो कार्यके आत्मलाभमें कुछ व्यापार करता है, वह कारण होता है । भूत, भविष्यकी पर्यायें जब ज्ञानकालमें विद्यमान ही नहीं हैं, तो वे कार्यकी उत्पत्तिमें कथमपि सहायता नहीं कर सकती हैं । पहिले तुलचुका या आगे तुलनेवाला घृत कृपण बनियेंकी तखरी में बोझ नहीं बढा सकता है। चिरभूत या चिरभविष्यकालमें रहनेवाले पदार्थोको भी कारण मान लेना तो बुद्धपनका लालबुझक्कड न्याय किसीको भी मान्य नहीं हो सकता है। देखो अन्वय और व्यतिरेक से कार्यकारणभाव साधा जाता है । ज्ञानको अर्थजन्य माननेमें अन्वयव्यभिचार और व्यतिरेक व्यभिचार दोष आते हैं, ये हम कह चुके हैं । तिस कारण विषयभूत अर्थसे जन्यज्ञान नहीं है, यह सिद्धान्त स्थित हो चुका है । अतः उत्तर अवधारण करना चाहिये, जिससे कि बौद्धमन्तव्यका व्यवच्छेद हो जाता है ।
नन्वेवमालोकजन्यत्वमपि ज्ञानस्य चाक्षुषस्य न स्यादिष्टं च तदन्यथानुपपत्तेः । परप्रत्ययः पुनरालोकलिंगादिरिति वचनात् । तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात्तस्य तज्जन्यत्वेऽर्थजन्यत्वमपि सत्यस्यास्पदादिज्ञानस्यास्तु विशेषाभावात् ।