________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
मनसे ही बनते हैं । हो, यदि वाक्यभेद इष्ट नहीं है, तब तो पिछला अवधारण करना अयुक्त है। क्योंकि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमानरूप वह मतिज्ञान तो स्वातंत्र्यसे इन्द्रिय मन दोनों करके नहीं उत्पन्न होता है । हां, उस वाक्यभेदका आश्रय नहीं करनेपर तो फिर पहिला अवधारण करना उपयुक्त है। अन्यथा सूत्रवाक्यके अर्थमें व्यभिचारीपन दोष उपस्थित हो जायगा । भावार्थ-मन, इन्द्रिय दोनों ही स्वतंत्र कारणोंसे मतिज्ञान ही उत्पन्न होता है । श्रुतज्ञान तो अकेले मनसे ही बन जाता है। पूर्व अवधारण नहीं माननेपर तो मतिज्ञानके सिवाय अन्यज्ञानोंको भी इन्द्रियजन्यपनेका प्रसंग प्राप्त होगा। ऐसी दशामें मतिज्ञानके लक्षणका या मतिज्ञानपनको साध्य बनाकर इन्द्रियमनसे जन्यपना हेतु करनेसे व्यभिचार दोष होना संभवता है । पहिला अवधारण कर देनेसे व्यभिचारकी सम्भावना नहीं है। मतिज्ञान ही इन्द्रिय अनिन्द्रिय उभयसे जन्य है। अन्य ज्ञान नहीं।
कुतः पुनरवधारणादन्यमतच्छित्कुतो वा मत्यज्ञानं श्रुतादीनि च व्यवच्छिन्मानीत्याह ।
शंकाकार फिर कहता है कि पहिली कारिकामें आपने कहा था कि इस सूत्रके करनेसे अन्य मतोंका फिर निरास हो जाता है ! सो बताओ, कौनसे अवधारणसे अन्य मतोंका छेद हुआ है ! तथा किस अवधारणके करनेसे मति अज्ञान और श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, कुश्रुत, विमंग, मनःपर्यय आदि ज्ञानोंका व्यवच्छेद हुआ है ? बताओ । इस प्रकार प्रश्न होने पर आचार्य महाराज समाधान करते हैं ।
ध्वस्तं तत्रार्थजन्यत्वमुत्तरादवधारणात् ।
मत्यज्ञानश्रुतादीनि निरस्तानि तु पूर्वतः ॥७॥
पिछले विधेय दलमें अवधारण करनेसे बौद्धों द्वारा माना गया उस बानमें अर्थजन्यपना नष्ट कर दिया जाता है। अर्थात् --मतिज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रियसे ही उत्पन्न हुआ है । अन्य विषयरूप अर्थसे जन्य नहीं । तथा प्रथम अवधारणसे तो पहिले, दूसरे, तीसरे, गुणस्थानोंमें सम्भवनेवाला मति अज्ञान, और चौथे आदि गुणस्थानोंमें सम्भव रहा श्रुतज्ञान या अवधिज्ञान तथा छडे आदिमें सम्भव रहा मनःपर्ययज्ञान एवं तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानों या सिद्धपरमेष्ठियोंके केवलज्ञानका अथवा पहिले दूसरे गुणस्थानके कुश्रुत, विभंगज्ञानोंका निवारण कर दिया जाता है। यानी इन्द्रिय अनिन्द्रय दोनोंसे उत्पन्न होने वाला एक मतिज्ञान ही है। दूसरे ज्ञान ऐसे नहीं हैं। तिनमें कुश्रुत और श्रुतज्ञानमें तो बहिरंग कारण मन ही पड सकता है । अन्य प्रत्यक्ष ज्ञानोंमें मन
और इन्द्रियोंको निमित्त कारण बननेकी आवश्यकता नहीं पडती है । अभिप्राय यह है कि प्रस्तावप्राप्त समीचीन पांच ज्ञानोंमें अकेला मतिज्ञान ही इन्द्रिय अनिन्द्रिय उभयसे जन्य है।