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________________ ४२० तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके सूत्रवाक्यका एकबार इन्द्रिय और अनिन्द्रिय अर्थ कर लेना चाहिये । पुनः इस वाक्यका विभाग कर अकेले अनौन्द्रिय अर्थको ही पकडना चाहिये । वह मतिज्ञान इन्द्रिय अनिन्द्रियनिमित्तोंसे उत्पन्न होता है । ऐसा अर्थ करनेसे तो अवग्रह, ईहा, अवःय, धारणा, तकके मतिज्ञान इस लक्षणसे युक्त हो जाते हैं । और वह अनिन्द्रियनिमित्तसे उत्पन्न होता है । ऐसा विभाग करनेसे स्मृति, प्रयभिज्ञान, तर्क, अनुमान, इन सबका ग्रहण हो जाता है। भावार्थ-धारणापर्यन्तज्ञान तो इन्द्रिय अनिन्द्रिय चाहे जिनसे न्यारे न्यारे उत्पन्न हो जाते हैं । अतः पूरा वाक्य तो धारणापर्यन्त मतिज्ञानोंमें घटित होता है । किन्तु स्मृति आदिक मतिज्ञान तो मनके निमित्तसे ही उत्पन्न होते हैं। अतः उस सूत्रका योगविभाग कर अनिन्द्रिय पदको ही खेंचकर अर्थ संघटित होता है। पारंपर्यस्य चाश्रयणे वाक्यस्याविशेषतो वाभिप्रेतसिद्धिः। यथा हि धारणापर्यंत तदिद्रियनिमित्तं तथा स्मृत्यादिकमपि तस्य परंपरयेंद्रियानिद्रियनिमित्तत्वोपपत्तेः। हां, यदि परम्परासे भी पडनेवाले निमित्त कारणोंका आश्रय किया जाय तब तो विशेषरूपसे विभाग नहीं करते हुये भी अभिप्रेतकी सिद्धि हो जाती है। जिस कारण कि जैसे अवग्रहसे प्रारम्भ कर धारणापर्यन्त उन मतिज्ञानोंके निमित्तकारण इन्द्रिय अनिन्द्रिय हो रहे हैं, तिसी प्रकार स्मृति आदिक भी स्वकीय निमित्तकारण इन्द्रिय, अनिन्द्रियोंसे बन रहे हैं। यह बात दूसरी है कि उन स्मृति आदिकोंमें इन्द्रियां परम्परासे निमित्तकारण है । किन्तु सामान्यरूपसे निमित्तकारणोंका विचार करनेपर सम्पूर्ण मतिज्ञानोंके कारण इन्द्रिय अनिन्द्रिय पड जाते हैं । ऐसी परम्परा दशामें योग विभाग कर अनिन्द्रियपदको अकेला न्यारा खींचनेकी आवश्यकता नहीं है। कि पुनरत्र तदेवेंद्रियानिंद्रियनिमित्तमित्यवधारणमाहोवित्तदिद्रियानिद्रियनिमित्तमेवेति कथंचिदुभयमिष्टमित्याह । यहां फिर किसीका प्रश्न है कि क्या वह मतिज्ञान ही इन्द्रिय और अनिन्द्रियरूप निमित्त कारणसे होता है । इस प्रकार पहिले उद्देश्य दलमें एवकार लगाकर अवधारण करना अभीष्ट है ! अथवा क्या वह मतिज्ञान इन्द्रिय, अनिन्द्रियरूप निमित्तोंसे ही उत्पन्न होता है। यह विधेय दलमें एवकार लगाकर नियम करना इष्ट है ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर आचार्य महाराज कथंचित् दोनों ही अवधारणोंको इष्ट करते हुये इस वक्ष्यमाण कारिकाको कहते हैं। वाक्यभेदाश्रये युक्तमवधारणमुत्तरं । । तदभेदे पुनः पूर्वमन्यथा व्यभिचारिता ॥६॥ " तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं " इस सूत्रका योगविभागकर वाक्यभेदका आश्रय करनेपर तो पिछला अवधारण करना युक्त है । अर्थात्-इन्द्रिय अनिन्द्रिय निमित्तोंसे ही वह मतिज्ञान होता है। धारणापर्यन्त मतिज्ञान तो इन्द्रिय, मन, दोनोंसे ही उपजते हैं । और स्मृति आदिक मतिज्ञान
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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