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'तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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नैयायिकोंके ग्रन्थोंका प्रमाण देकर कतिपय व्याख्यानोंका प्रत्याख्यान किया है । कार्य आदिक, वीत आदिक, रूप व्याख्यान भी फीके हैं। अन्यथानुपपत्तिके तत्त्व और असत्त्वसे हेतुका गमकपना या अगमकपना व्यवस्थित है । इसके आगे कारण या कार्य और अकार्यकारण इन तीनोंसे भी कोई प्रयोजन नहीं सकता, साधा है । कार्यकारण दोनोंके उभयरूप पदार्थका भी सद्भाव है। अंकुरकी संतान बीजकी संतान एक दूसरेके कार्य और कारण हैं । सामान्य श्रुतज्ञान और सामान्य केवलज्ञान परस्पर में एक दूसरे के कार्य या कारण हैं। सन्तानियोंसे सन्तान कथंचित् भिन्न है । वह द्रव्य या गुणरूप नहीं है । वैशेषिकों द्वारा माने गये अभूताभूत आदि हेतु भी अन्यथानुपपत्तिके विना सफल नहीं हैं । अतः संक्षेपसे उपलम्भ और अनुपलम्भमें ही सम्पूर्णहेतुओं का अन्तर्भाव हो जाता है । कार्य आदि भेद करना निरर्थक है । उपलम्भ हेतु भी निषेधको साधते हैं। और अनुपलम्भ हेतु भी विधिको साधते हैं । अतः उपलम्भ और अनुपलम्भके लिये विधि और निषेधको ही साधनेका अवधारण करना उचित नहीं है । कार्य, कारण, स्वभाव, पूर्वचर आदि भेदोंसे उपलब्धि अनेक प्रकारकी है । अथवा अकार्यकारण नामक भेदके स्वभाव, व्यापक, आदि अनेक प्रभेद हो जाते हैं । प्रतिषेधको साधने में अर्थकी विरुद्ध उपलब्धिके भेद दिखाकर विद्वत्ताके अनेक ढंगोंसे अनेक प्रकारकी विरुद्ध उपलब्धियां दिखलाई हैं। मध्यमें अनेक विषयोंको स्पष्ट किया है। कारणको ज्ञापकहेतु माननेमें अन्त्यक्षण प्राप्तिको हठाते हुये अन्य कारणोंकी समग्रता और सामर्थ्यका नहीं रोका जाना बीज बताया है । कथंचित् नित्य अनित्य द्रव्यमें ही उत्पाद, व्यय, धौव्य बनते हुये अर्थक्रिया हो सकती है । अत्मा उपात्त शरीरके अनुसार परिमाणवाला है । व्यापक नहीं है । अनेक शास्त्रीयदृष्टान्तों द्वारा विरुद्ध उपलब्धिके भेदोंके प्रातीतिक उदाहरण दिये हैं। इन उदाहरणोंको उपलक्षण मानकर ज्ञापक हेतुओंके अन्य भी उदाहरण परीक्षकों द्वारा स्वयं लोकप्रसिद्धि के अनुसार प्रदर्शन कर लेना चाहिये, ऐसी हित शिक्षा दी है । आगे चल कर कार्यकारणसे मिन हो रहे यानी अकार्यकारण हेतुके भेदोंका उदाहरण दिख लाया है । चिरपूर्व और उत्तरकालके अर्थोको कारण माननेवाले बौद्धोंके मन्तव्यका निरास कर एक द्रव्य तादात्म्य ही रूप आदि गुणोंकी द्रव्यके साथ प्रत्यासत्ति बताई है । बौद्धों के द्वारा कहे गये सम्पूर्ण हेतु तो अविनाभाव से विकल होने के कारण हेत्वाभास हो जाते हैं । अनन्तर निषेध साधनेमें उपलब्धि, अनुपलब्धियोंके अनेक उदाहरण साधे हैं। इनका विशेष लम्बा व्याख्यानं है। सभी हेतु उपलब्धि, अनुपलब्धियों में संग्रहीत हो जाते हैं । संयोगी, बीत, केवलान्वयी, कार्य, पूर्ववत् आदि आदि भेद करना अव्यवहार्य है । आगे चलकर साध्यके लक्षण में पडे हुये शक्य, अभिप्रेत, अप्रसिद्ध, विशेषणोंकी कीर्त्ति करते हुये वार्त्तिकोंद्वारा बहुत अच्छा विवेचन किया है। पक्षका भी विचार किया है। संशय या जिज्ञासाको धरनेवाले ही प्रतिपाद्य नहीं होते हैं । किन्तु विपर्ययज्ञानी और अज्ञानी भी उसी प्रकार प्रतिपाद्य हैं । अन्त्रयरहित भी ज्ञापक हेतु होते हैं। पक्षके भीतर व्याप्ति बनाकर अन्तर्व्याप्ति के
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