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तत्वार्थ लोकवार्तिके
बलसे भी सद्धेतु बन जाते हैं । अभिनिबोधका अर्थ यह स्वार्थानुमान है । अर्थापत्ति प्रमाण, अभावप्रमाण, सम्भव, प्रतिभा, ये सब इनमें ही गर्भित हो जाते हैं। अथवा स्मृति आदिकको उपलक्षण मानकर अर्थापत्ति, प्रतिभा आदि सभी मेद मतिज्ञानके कह दिये गये समझ लेने चाहिये । इस सूत्र द्वारा मतिज्ञानके प्रकारोंका प्ररूपण किया गया है।
यस्माद्धृक्कमले जिनस्य चरणौ स्मृत्वा निजात्मार्थदृक् । सिद्धं स्वात्मसमानतैक्यविधिना संज्ञाय तं चिंतयन् ॥ मत्युत्थश्रुतशुक्ल जामनुमितां प्राप्नोति सिद्धिं नरः । तच्छ्रीमुक्तिपितामहोपममतिज्ञानं सभेदं जयेत् ॥ १ ॥
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अब मतिज्ञानके निमित्तकारणोंका निरूपण करनेके लिये श्री उमास्वामी महागज अगले सूत्रका अवतार करते हैं ।
तर्दिद्रियानिंद्रियनिमित्तम् ॥ १४ ॥
वह मतिज्ञान इन्द्रिय स्पर्शन आदि पांच तथा अनिन्द्रिय मनरूप निमित्तोंसे उत्पन्न होता है। मतिविज्ञानस्याभ्यंतरत्वाचनिमित्तं मतिज्ञानावरणवीयतरायक्षयोपशमलक्षणं प्रसिद्धमेव वामुनानुमानादेस्तद्भावायोगादतः किमर्थमिदमुच्यते सूत्रमित्याशंकायामाह ।
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नामके विज्ञानका अभ्यन्तर होनेसे मतिज्ञानावरण कर्म और वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम स्वरूप वह निमित्तकारण जब प्रसिद्ध ही हो रहा है, तो फिर यह सूत्र किस प्रयोजनके लिये कहा जाता है । अथवा उस सूत्रके कहनेपर भी अनुमान, प्रत्यभिज्ञान, आदि मतिज्ञानोंको जब इन्द्रिय अनिन्द्रिय निमित्तपनेका सम्बन्ध नहीं होने पाता है, यानी अनुमानके कारण हेतुज्ञान, व्याप्तिस्मरण, तर्कज्ञान हैं । प्रत्यभिज्ञान के कारण दर्शन और स्मरण हैं। स्मृतिका कारण धारणा ज्ञान है । तर्कके कारण उपलम्भ और अनुपलम्भ हैं । इन्द्रिय और अनिन्द्रिय तो अनुमान, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क इन मतिज्ञानोंके कारण नहीं हैं । धारणाका भी अव्यवहित कारण अवायज्ञान है । अवायका अव्यवहित कारण ईहा मतिज्ञान है। ईहाका निमित्त या उपादान अवग्रह ज्ञान है । अवग्रहका अव्यवहित पूर्ववत दर्शन उपयोग है। हां, दर्शनके निमित्त कारण इन्द्रिय और मन हो सकते हैं । अन्तरंग कारण तो मतिज्ञानावरणका क्षयोपशम सभी मतिज्ञानोंमें उपयोगी है 1 ऐसी दशा में इन्द्रिय और अनिन्द्रियको मतिज्ञानका निमित्तकारण कहनेवाले इस सूत्रकी क्या आवश्यकता है? व्यर्थ अन्याप्ति दोषोंका खटका रखना ठीक नहीं, ऐसी आशंका होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य स्पष्ट समाधान कहते हैं ।
हो रहा